Book Title: Sagar Jain Vidya Bharti Part 4
Author(s): Sagarmal Jain
Publisher: Parshwanath Shodhpith Varanasi

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Page 8
________________ के विभिन्न ग्रन्थों को पढ़ने से एक निष्पक्ष व्यक्ति को स्पष्ट रूप से ऐसा प्रतीत होता है कि सम्भवतः दोनों परम्पराओं के अनेक ग्रन्थों में भद्रबाहु नाम वाले दो-तीन आचार्यों के जीवन चरित्रों की घटनाओं को गड्डमड्ड करके अन्तिम चतुर्दश पूर्वधर आचार्य भद्रबाहु के जीवन चरित्र के साथ जोड़ दिया गया है। पश्चाद्वर्ती आचार्यों द्वारा लिखे गये कुछ ग्रन्थों का, उनसे पूर्ववर्ती आचार्यों द्वारा लिखित ग्रन्थों के साथ तुलनात्मक अध्ययन करने पर स्पष्टरूपेण आभासित होता है कि भद्रबाहु के चरित्र में पश्चाद्वर्ती आचार्यों ने अपनी कल्पनाओं के आधार पर कुछ घटनाओं को जोड़ा है। उन्होंने ऐसा अपनी मान्यताओं के अनुकूल वातावरण बनाने के अभिप्राय से किया अथवा और किसी अन्य दृष्टि से किया, यह निर्णय तो तुलनात्मक अध्ययन के पश्चात् पाठक स्वयं ही निष्पक्ष बुद्धि से कर सकते हैं । " १ आचार्य भद्रबाहु के जीवनवृत्त एवं उनके नाम से प्रचलित कृतियों के सम्बन्ध में समीक्षात्मक दृष्टि से अध्ययन करने का श्रेय जिन पाश्चात्य भारतीयविद्या- विदों को जाता है उनमें प्रोफेसर हर्मन जाकोबी प्रथम हैं। उन्होंने सर्वप्रथम यह प्रतिपादित किया कि पाइन्न (प्राच्य) गोत्रीय श्रुतकेवली आचार्य भद्रबाहु को नियुक्तियों का कर्त्ता मानना भ्रान्ति है, क्योंकि नियुक्तियाँ वीर निर्वाण संवत् ५८४ से ६०९ के बीच रचित हैं जबकि श्रुतवली आचार्य भद्रबाहु तो वीर निर्वाण संवत् १६२ (दिगम्बर मान्यता) अथवा वीर निर्वाण संवत् १७० (श्वेताम्बर मान्यता) में स्वर्गस्थ हो चुके थे। इस सम्बन्ध में समीक्षात्मक दृष्टि से जिन भारतीय विद्वानों ने चिन्तन किया है उनमें मुनि श्री पुण्यविजयजी, मुनि श्री कल्याणविजयजी, पं० सुखलालजी, पं० दलसुखभाई, आचार्य हस्तीमल जी, आचार्य महाप्रज्ञजी, साध्वीवर्या संघमित्राजी आदि प्रमुख हैं । दिगम्बर परम्परा के विद्वान् डॉ० राजाराम जी ने भी रइधूकृत भद्रबाहु चरित्र (पन्द्रहवीं शती) की भूमिका में समीक्षात्मक दृष्टि से विचार किया है, फिर भी उन्होंने अपनी दृष्टि को दिगम्बर स्रोतों को प्रामाणिक मानते हुए उन्हीं पर विशेष रूप से केन्द्रित रखा है, जबकि आचार्य हस्तीमल जी, मुनिश्री कल्याणविजयजी और साध्वी संघमित्राजी ने दोनों परम्परा के मूलस्रोतों का अध्ययन कर अपना समीक्षात्मक चिन्तन प्रस्तुत किया है। विशेष रूप से नियुक्तियों के कर्त्ता के प्रश्न को लेकर प्रो० हर्मन जाकोबी, मुनि पुण्यविजय जी, आचार्य हस्तीमलजी, आचार्य महाप्रज्ञ जी, समणी कुसुमप्रज्ञा जी एवं स्वयं मैंने भी समीक्षात्मक विवेचन प्रस्तुत किये हैं, इनमें समणी कुसुमप्रज्ञाजी को छोड़कर शेष सभी इस सम्बन्ध में एकमत हैं कि नियुक्तियाँ प्राच्य गोत्रीय आचार्य भद्रबाहु की कृतियाँ नहीं हैं । किन्तु वे किसकी कृतियाँ हैं इस सम्बन्ध में इन सभी के बीच भी मतवैभिन्य है। इसकी विस्तृत चर्चा हम आगे भद्रबाहु के कृतित्व के सम्बन्ध में विचार करते समय करेंगे। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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