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साधुसाध्वी कर लिया। धन्य है अनंत बल वीर्य पराक्रमवाले महावीर प्रभु आदि महान् उत्तम तीर्थकर गणधरोंको जिन्होंने गये भवमें और प्रतिक्रमण
इस भवमें बडे बडे दुष्कर घोर तप करके कर्मोंका नाशकर मोक्ष गये हैं और धीकार है मेरेको, मैं अबके कीडेकी तरह रोजीना | सूत्र | आहार करता हूं. उपवासादि थोडासाभी तप कर सकता नहीं. धन्य वह दिन मेरे कब आयेंगे, मैं भी अपने शरीरका मोह रहित है होकर अपने बल वीर्य पराक्रमसे उद्यम वाला होकर अनंती वार आहार किये हुए ऐसे अनादि येठे (झूठे) आहारको छोडकर का घोर तप करके अन आहारी पद पाउंगा. इस प्रकार उत्तम पुरुषोंके तपस्यादि गुणोंकी भावना करते हुए और अपने आत्माकी
निन्दा करते हुए भाडेनी मकानकी तरह शरीरको भाडा देने रूप व धर्म साधनके हेतु भूत आहार करनेसे कुरगडु मुनिकी तरह * केवलज्ञानकी देनेवाली कर्मोंकी बहुत निजरा होती है।
अब आहार करते समय मांडलीके पांच दोष निवारण करने चाहिये सो बतलाते हैं। राग-द्वेष-मोहसे स्वाद के लिये आहार लेते समय एक वस्तुके साथ दूसरी वस्तुका मिलान करना या आहार करते समय पात्रमें वा कवलमें आहारका संयोग मिलाना सो प्रथम संयोजना दोष १, मन-वचन-कायासे स्वाध्याय-ध्यान-तप-संयम-इरिया | समिति आदिकी आराधना करनेके लिये शरीरकी व्यवहारिक शक्ति रहे उतना अल्प आहार करनेका कहाहै, इससे अधिक शरी| रकी पुष्टि के लिये या अच्छा आहार समझकर लोभसे ज्यादा आहार करे सो दूसरा प्रमाणातिरिक्त दोष २, मिष्ट-गरीष्ट-रसवालास्वादिष्ट आहारकी और ऐसे आहारके दातारकी प्रशंसा करता हुआ आहार करे तो रागरूप अग्निसे चारित्ररूप बावन चंदनको जलाकर कोयले करने रूप तीसरा अंगार दोप लगे ३, रसरहित, स्वादरहित, लूखा, सूका, अमनोज्ञ आहारकी तथा ऐसे आहारके दातारकी18/॥४०॥
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