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साधुसाध्वी में होते हैं और तप-संयमादिकी आराधना विनाही शरीरके मोहसे अकारण व दोषवाला आहार करके ब्रह्मचर्यकी, संयमकी के प्रतिक्रमण ॥४२॥
| विराधना करने वाले साधु-साध्वी रस स्वादके लोभसे अमूल रत्नचिंतामणि समान संयमधर्मकी विराधना करके मनुष्य लभवको खो बैठते हैं. इससे रोग-शोक-भय-परवशता-नरक तिर्यचादि अनंत दुःखोंके भोगने वाले होते हैं और चारगतिके संसारमें
परिभ्रमण करते हैं तथा निर्दोष शुद्ध आहार करने वालोंकी धर्मकार्यमें बुद्धि चलती है और दोषवाला अशुद्ध आहार करने वालोंकी बुद्धि मलीन होनेसे निद्रा-विकथा-प्रमादमें समय जाता है, प्रतिक्रमण-पडिलेहण-स्वाध्याय-ध्यानादि धर्मकार्यों में अनादर होता है, आलस्य बढता है, इसलिये संसारके दुःखोंसे डरनेवाले मोक्षके अभिलाषी साधु-साध्वियों को दृष्टिराग-मोह-ममत्व-प्रमादादि दुपणोंको छोडकर आचारांग-दशवैकालिक-पिंडविशुद्धि आदि आगमानुसार शुद्ध संयमकी आराधना करके अल्प समयमें आत्महितका ४ साधन करलेना योग्य है । इस प्रकार आहार संबंधी संक्षेपसे ४७ दोषोंका अधिकार संपूर्ण हुआ। .
|| ।। ॥ श्री संखेश्वर पार्श्वनाथ स्वामीके पंच कल्याणकका चौढालिया लिख्यते ॥
॥ढाल पहिली॥ सारद बुद्धि दायक, सेवक नयनानंद । सरस्वती पद पंकज, प्रणमि मन हुल्लास । वली प्रणमुज सद्गुरु, यो मुज वचन त विलास ॥ संखश्वर मंडन, सहुनी पूरे आस । हूं गायसुं भक्ते, तेवीसमा प्रभु पास ॥ उल्लालो । तेवीसमा प्रभु पास मनोहर, सहु-17 ना संकट चूरे । दुर्गति निवारण दुख विडारण, मन वांछित सुखपूरे ॥ वामा नंदन पास अनोपम, उपमा सुरतरु सरीखो । सेवक 31॥
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