Book Title: Sadhu Pratikramanadi Sutrani
Author(s): Jagjivan Jivraj Kothari, 
Publisher: Jagjivan Jivraj Kothari

View full book text
Previous | Next

Page 81
________________ गुरुको आहार दिखलावे जिसमेंभी कोई आहार वहोरनेमें दोष लगाहोवे वह गुरुके सामने कहना रहजावे या बिलकुलही भूलसे याद न आवे तो उसकी शुद्धिके लिये 'पडिकमामि गोयरचरियाए भिक्खायरियाए' इत्यादि से लेकर · जंन परिट्ठवियं तस्स मिच्छामि दुक्कडं' तक 'पग्गाम सज्झाय ' के अंदरका आलापक बोलकर तस्सुत्तरी और अनत्थ उससिएणं' इत्यादि पढकर काउसग्ग करे, काउसग्गमें यह गाथा अर्थ सहित चिंतव " अहो जिणेहिं असावजा, वित्ति साहूण देसिया ।। मुक्खसाहणहेउस्स, साहूदेहस्स धारणा ॥ १॥" अर्थः-अहो ! इति आर्य जिनेश्वर भगवान्ने असावद्य-निर्दोषवृत्ति-आहारलेनेकी विधि साधुके लिये कैसी उमदा बतलाई है, ऐसी निर्दोष विधिसे आहार लेनसे साधुके शरीरका निर्वाह ( पालन ) होता है और मोक्ष | साधनका हेतुभी होता है. ऐसे परोपकारी जिनेश्वर भगवान्को मेरा नमस्कार हो. यह गाथा एक वार या तीन बार अर्थ सहित चितवन करके काउसग्ग पारे, प्रकट लोगस्स कहे. फिर रजोहरणसे भूमिकी प्रमार्जना करके व पात्रे भूमिपर रक्खे उपर झोलीसे | आच्छादन करे और उपर नीचे जमीन प्रमाजन करके दंडको एक जगाइमें रखदेवे, अगर वर्षाकाल हो तो पात्र बाजोट (पाट-13 चौकी ) पर रक्खे, फिर उपाश्रयमें आहार करनेकी भूमिकी प्रमार्जना करके विधिपूर्वक कचरेको परिठवे. फिर आचार्य-उपाध्याय| गुरु-वडील-तपस्वी-बाल-वृद्ध-रोगी आदि सब मुनियों को अनुक्रमसे आहार लेनकी निमंत्रणा विनतिकरे, जिसको जो आहार खपे सो भक्ति-भाव पूर्वक देवे और बाकी रहे वो अथवा सब आहार मुनियों को दे देवे तो फिर दूसरा निर्दोष आहार लाकर आहार करे तब आहार करनेके पहिले ऐसी भावना करनी चाहिये कि धन्य है धनाजी आदि महान् उत्तम मुनियोंको जिन्होंने अपने असार शरीरका मोह छोडकर निर्ममत्व भावस बहुत कठिन तप करके थोडे समय ( नव महिनों) में ही अपना इष्ट कार्य सिद्ध अनुक्रमसे आहार तो फिर दूसरा मुनियोंको LTH सिद्ध Juin tuction International For Personal & Private Use Only www.iminelib yong

Loading...

Page Navigation
1 ... 79 80 81 82 83 84 85 86 87 88 89 90 91 92