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राजा प्रदेशी और केशीकुमार श्रमण
उसी प्रकार शरीर में
आत्मा रहता है। उसका दर्शन करने के लिए ध्यान, तप, मनन रूपी घर्षण करना पड़ता है। तभी आत्मा रूपी ज्योति का दर्शन होता है।
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कुछ देर तक राजा सोचता रहा। फिर बोला
आप कहते हैं कि चेतना के कारण ही हम सब घूम-फिर रहे हैं। तो क्या आप मुझे उस चेतना को हाथ पर लेकर दिखा सकते हैं ?
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राजा बहुत देर तक तर्क-वितर्क करता रहा। अन्त में उसे केशीकुमार श्रमण की बात सच लगने लगी। उसने सोचा
मेरी मान्यता गलत है, मुनि जी का कहना सच है। शरीर तो भौतिक वस्तुओं से बना है। आत्मा चैतन्य स्वरूप है। जैसे दीपक में ज्योति रहती है, उसी प्रकार शरीर में आत्मा रहता है। दीपक से ज्योति भिन्न है, उसी तरह शरीर से आत्मा को भिन्न समझो।
राजन्! तुम्हारे सिर पर यह वृक्ष है। इसकी पत्तियाँ क्यों हिल रही हैं, कौन हिला रहा है इन्हें ?
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यह तो हवा
के कारण हिल रही हैं।
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