Book Title: Raghuvansh Mahakavya
Author(s): Kalidas Makavi, Mallinath, Dharadatta Acharya, Janardan Pandey
Publisher: Motilal Banarsidass
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उपोद्घात राजा भी उस पर निछावर हो जाता है। दोनों का प्रेम विवाह-रूप में परिणत हो जाता है, किन्तु उर्वशी दो उरणक राजा के पास धरोहर रखती है और कहती है जिस दिन तुम इनकी रक्षा करने में असमर्थ हो जाओगे मैं तुम्हें छोड़कर चली जाऊंगी। वर्षों तक प्रेमोन्माद में डूबे हुए भी वे तृप्त न हो पाये थे कि उरणक चोरी हो गये । उर्वशी देवलोक को चली गई। राजा पुरूरवा उसके वियोग में पागल होकर वनों में मारा-मारा फिरने लगा। इस नाटक में कवि ने प्रणय और प्रेमोन्माद की चरम सीमा का दिग्दर्शन कराया है।
३. अभिज्ञानशाकुन्तल
यह नाटक कालिदास की काव्यसरस्वती का सर्वोत्कृष्ट प्रसाद है। "काव्येषु नाटकं रम्यं तत्र रम्या शकुन्तला" यह जनश्रुति यथार्थ है। महाभारत में शुष्क और नीरस रूप में वर्णित एक साधारण-सी घटना को महाकवि की लेखनी ने वह चमत्कार दिया है जिसमें समग्र आर्यसंस्कृति का समावेश हो जाता है। सौन्दर्य की पवित्रता, प्रेम की निश्छलता, प्राकृतिक मुग्धता, ऋषिकुल की उदारता एवं दयालुता, कण्व का वात्सल्य, दुर्वासा का कोप, राजा की विस्मति, शकुन्तला का आक्रोश, अन्त में दुष्यन्त का पश्चात्ताप-यह सब मिलाकर कवि ने एक ऐसा पदार्थ तैयार किया है जो जीवन के किसी भी पहलू में मूल्यवान् है। ग्रन्थ का प्रारम्भ दुष्यन्त की मृगया से हुआ है। प्रथम अंक में आश्रम-परिचय, शकुन्तला के सौन्दर्य पर दुष्यन्त की मुग्धता, अन्तःकरण की वृत्तियों का प्रामाण्य, दोनों का परस्पर आकर्षण और अन्त में शकुन्तला द्वारा अपनी भावना की अभिव्यक्ति है। दूसरे अंक में काम की प्रतिष्ठा और दुष्यन्त का अपनी भावना का स्पष्टीकरण है। तृतीय अंक में राजा की विरह-दशा का मार्मिक चित्रण और प्रणयपाश में बंधी शकुन्तला का आत्मसमर्पण है। चतुर्थ अंक इस नाटक की आत्मा ही है। इसमें कण्व द्वारा इस गान्धर्व-विवाह को स्वीकृति देना और गभिणी शकुन्तला का आश्रम से विदा होने का मर्मस्पर्शी वर्णन है। कवि की प्रकृति के विषय में कितनी सूक्ष्म निरीक्षिका दृष्टि-है यह इसमें स्पष्ट होता है। दुर्वासा का शाप, कण्व का वात्सल्य, प्रकृति के जड़पदार्थों में