Book Title: Pravachansara Part 03
Author(s): Kamalchand Sogani, Shakuntala Jain
Publisher: Apbhramsa Sahitya Academy

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Page 68
________________ 51. जोण्हाणं णिरवेक्खं सागारणगारचरियजुत्ताणं। अणुकंपयोवयारं कुव्वदु लेवो जदि वि अप्पो।। जोण्हाणं (जोण्ह) 6/2 वि जिन मार्गानुयायियों का णिरवेक्खं (णिरवेक्ख) 2/1 वि अपेक्षा-रहित सागारणगारचरिय- [(सागार) वि-(अणगार) वि- गृहस्थ और श्रमणों जुत्ताणं (चरिया)-(जुत्त) की चर्या से युक्त भूक 6/2 अनि] अणुकंपयोवयारं [(अणुकंपया)+(उवयारं)] अणुकंपया(अणुकंपया)3/1 अनि अनुकंपापूर्वक तृतीयार्थक अव्यय उवयारं (उवयार) 2/1 उपकार कुव्वदु (कुव्व) विधि 3/1 सक करे (लेव) 1/1 कर्मलेप जदि अव्यय यदि अव्यय (अप्प) 1/1 वि लेवो अप्पो थोड़ा अन्वय- सागारणगारचरियजुत्ताणं जोण्हाणं णिरवेक्खं अणुकंपयोवयारं कुव्वदु जदि अप्पो वि लेवो। अर्थ- (शुभोपयोगी श्रमण) गृहस्थ और श्रमणों की चर्या से युक्त जिन मार्गानुयायियों (गृहस्थ और श्रमणों) का अपेक्षा-रहित अनुकंपापूर्वक उपकार करे, यदि थोड़ा भी कर्मलेप (होता है) (तो भी) (करे)। प्रवचनसार (खण्ड-3) चारित्र-अधिकार (61)

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