Book Title: Pravachana Saroddhar Part 1
Author(s): Hemprabhashreeji
Publisher: Prakrit Bharti Academy

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Page 15
________________ सम्पादकीय १२ 2 0030dinviseo5066560020030540000000000036 चन्द्रगच्छीय श्री प्रद्युम्नसूरि ने तलपाटक नगर में महाराजा अल्लु (अल्लक) की राज्य सभा में दिगम्बर विद्वान् को पराजित किया था। सपादलक्ष, त्रिभुवनगिरि आदि राजाओं को जैन धर्म का उपासक बनाया था। यहीं से चन्द्रगच्छ राजगच्छ के नाम से प्रसिद्ध हुआ। अभयदेवसूरि-न्यायवनसिंह अथवा तर्कपंचानन विरुद के धारक थे। इन्होंने सिद्धसेनदिवाकर रचित सन्मतितर्क पर तत्त्वबोधविधायिनी बृहद् टीका की रचना की जो वादहार्णव के नाम से प्रसिद्ध है। दर्शन शास्त्र के असाधारण विद्वान थे। धनेश्वरसूरि—ये मूलत: त्रिभुवनगिरि के महाराजा कर्दम थे। धारा नगरी के महाराजा मुञ के राजमान्य गुरु थे और इन्हीं की सभा में पुण्डरीक नामक विद्वान् को पराजित किया था। प्रभाचन्द्रसूरि कृत प्रभावकचरित्र के अनुसार इनके राजमान्य होने के कारण चन्द्रगच्छ राजगच्छ के नाम से प्रसिद्ध हुआ। देवभद्रसूरि-इनके प्रमाणप्रकाश और श्रेयांसचरित्र ये दो ग्रन्थ प्राप्त होते हैं। सिद्धसेनसूरि–१२४८ में सिद्धान्तचक्रवती नेमिचन्द्रसूरि रचित प्रवचनसारोद्धार पर तत्त्वज्ञान-विकाशिनी नामक बृहद् टीका की रचना की। इस टीका में स्वरचित पद्मप्रभचरित्र और सामाचारी का उल्लेख आता है। धनेश्वरसूरि—ये शीलभद्रसूरि के शिष्य थे। सिद्धान्तों के प्रौढ़ विद्वान् थे। इन्होंने ११७१ अणहिलपुर पट्टण में खरतरगच्छीय जिनवल्लभसूरि रचित सूक्ष्मार्थविचारसारोद्धार प्रकरण पर टीका की रचना की थी। इस रचना में इनके शिष्य पार्श्वदेवगणि सहायक । थे। श्रीचन्द्रसूरि—मुनि अवस्था में इनका नाम पार्श्वदेवगणि था। विक्रम संवत् १२०४ में मंत्री पृथ्वीपाल ने विमल वसही, आबू का उद्धार करवाया था उस समय ये वहाँ विद्यमान थे। इनके द्वारा रचित निम्न साहित्य प्राप्त है१. दिङ्नाग प्रणीत न्यायप्रवेश, हारिभद्रीय वृत्ति पर पञ्जिका, सं. ११६९ २. महत्तर जैनदासीय निशीथचूर्णी पर विंशोद्देशक व्याख्या, सं. ११७३ श्रावकप्रतिक्रमणसूत्र वृत्ति, सं. १२२२, ४. नन्दीसूत्रटीका दुर्गपदव्याख्या ५. जीतकल्पबृहच्चूर्णि व्याख्या, सं. १२२७ ६. निरयावलीसूत्र वृत्ति, सं. १२२८ ७. चैत्यवन्दन सूत्र वृत्ति १. माणिक्यचन्द्रसूरिः पार्श्वनाथ चरित्र प्रशस्ति, पद्य २८ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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