Book Title: Prakrit ka Jain Agam Sahitya Ek Vimarsh
Author(s): Sagarmal Jain
Publisher: Prachya Vidyapith Shajapur

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Page 8
________________ अनेक ऋचायें हैं- जिनका कोई अर्थ नहीं निकलता है। (अनर्थकाः हि वेद-मन्त्राः)। इस प्रकार, वेद शब्द-प्रधान हैं, जबकि जैन आगम अर्थ-प्रधान हैं। वेद और जैनागमों में तीसरी भिन्नता उनकी विषय-वस्तु की अपेक्षा से भी है। वेदों में भौतिक उपलब्धियों हेतु प्राकृतिक शक्तियों के प्रति प्रार्थनाएं ही प्रधान रूप से देखी जाती हैं, साथ ही कुछ खगोल-भूगोल सम्बन्धी विवरण और कथाएं भी हैं, जबकि जैन आगम साहित्य में आध्यात्मिक एवं वैराग्यपरक उपदेशों के द्वारा मन, इन्द्रिय और वासनाओं पर विजय पाने के निर्देश दिये गये हैं। इसके साथ-साथ, उसमें मुनि एवं गृहस्थ के आचार सम्बन्धी विधि-निषेध प्रमुखता से वर्णित हैं तथा तप-साधना और कर्म-फल विषयक कुछ कथाएँ भी हैं। खगोल-भूगोल सम्बन्धी चर्चा भी जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति, सूर्यप्रज्ञप्ति आदि ग्रन्थों में है। जहाँ तक जैनदर्शन का प्रश्न है, उसका प्रारम्भिक रूप ही आगमों में उपलब्ध होता है। वैदिक साहित्य में वेदों के पश्चात् क्रमशः ब्राह्मण-ग्रन्थों, आरण्यकों और उपनिषदों का क्रम आता है। इनमें ब्राह्मण ग्रन्थ मुख्यतः यज्ञ-याग सम्बन्धी कर्मकाण्डों का विवरण प्रस्तुत करते हैं, अतः उनकी शैली और विषय-वस्तु- दोनों ही आगम-साहित्य से भिन्न हैं। आरण्यकों के सम्बन्ध में मैं अभी तक सम्यक अध्ययन नहीं कर पाया हूँ, अतः उनसे आगम साहित्य की तुलना कर पाना मेरे लिये सम्भव नहीं है। किन्तु आरण्यकों में वैराग्य, निवृत्ति एवं वानप्रस्थ जीवन के अनेक तथ्यों के उल्लेख होने से विशेष तुलनात्मक अध्ययन के द्वारा उनमें और जैन आगमों में निहित समरूपता को खोजा जा सकता है। ___ जहाँ तक उपनिषदों का प्रश्न है, उपनिषदों के अनेक अंश आचारांग, इसिभासियाइं आदि प्राचीन आगम-साहित्य में भी यथावत उपलब्ध होते हैं। याज्ञवल्क्य, नारद, कपिल, असितदेवल, अरूण, उद्दालक, पाराशर आदि अनेक औपनिषदिक ऋषियों के उल्लेख एवं उपदेश इसिभासियाई, आचारांग, सूत्रकृतांग एवं उत्तराध्ययन में उपलब्ध हैं। इसिभासियाइं में याज्ञवल्क्य का उपदेश उसी रूप में वर्णित है, जैसा वह उपनिषदों में मिलता है। उत्तराध्ययन के अनेक आख्यान, उपदेश एवं कथाएँ मात्र नाम-भेद के साथ महाभारत में प्राकृत का जैन आगम साहित्य : एक विमर्श / 06 Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org

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