Book Title: Prakrit ka Jain Agam Sahitya Ek Vimarsh
Author(s): Sagarmal Jain
Publisher: Prachya Vidyapith Shajapur

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Page 42
________________ वल्लभी की देवर्धि की वाचना में समाहित नहीं हुए हैं- इसकी पुष्टि होती है। मुझे ऐसा लगता है कि वल्लभी की देवर्धि की वाचना का आधार माथुरी वाचना के आगम न होकर उनकी अपनी ही गुरु-परम्परा से प्राप्त आगम रहे होंगे। मेरी दृष्टि में उन्होंने नागार्जुनीय वाचना के ही पाठान्तर अपनी वाचना में समाहित किये, क्योंकि दोनों में भाषा एवं विषय-वस्तु- दोनों ही दृष्टि से कम ही अन्तर था। माथुरी वाचना के आगम या तो उन्हें उपलब्ध ही नहीं थे अथवा भाषा एवं विषय-वस्तु- दोनों की अपेक्षा भिन्नता होने से उन्होंने उसे आधार न बनाया हो। फिर भी- देवर्धि को जो आगम परम्परा, से प्राप्त थे, उनका और माथुरी वाचना के आगमों का मूल स्रोत तो एक ही था। हो सकता है कि कालक्रम में भाषा एवं विषय-वस्तु की अपेक्षा दोनों में क्वचित् अन्तर आ गये हों, अतः यह दृष्टिकोण भी समचित नहीं होगा कि देवर्षि की वल्लभी वाचना के आगम माथुरी वाचना के आगमों से नितान्त भिन्न थे। दिगम्बर और यापनीय सम्प्रदाय का आगम साहित्य . दिगम्बर और यापनीय जैन धर्म की अचेल धारा के मुख्य सम्प्रदाय रहे हैं। आज जिस आगम साहित्य की बात की जा रही है, उसका मुख्य सम्बन्ध श्वेताम्बर धारा के मूर्तिपूजक, स्थानकवासी और तेरापंथी सम्प्रदायों से रहा है। मूर्तिपूजक सम्प्रदाय 10 प्रकीर्णक, जीतकल्प, पिण्डनियुक्ति और महानिशीथइन तेरह ग्रन्थों को छोड़कर शेष बत्तीस आगम तो स्थानकवासी और तेरापंथी भी मान रहे हैं। जहाँ तक अचेल धारा की दिगम्बर परम्परा का प्रश्न है, जैसा कि हम पूर्व में सूचित कर चुके हैं, वह 12 अंग आगमों और 14 अंगबाह्य आगमों के नाम तो प्रायः वहीं मानती है, किन्तु उसकी मान्यता के अनुसार इन अंग और अंगबाह्य आगम ग्रन्थों की विषय वस्तु काफी कुछ विलुप्त ओर विद्रूषित हो चुकी है, अतः मूल आगम साहित्य का विच्छेद मानती है। उनके अनुसार, चाहे आगम साहित्य का विच्छेद हो चुका है, उनके आधार पर चरिचत कसायपाहुड,छक्खण्डागम, मूलाचार, भगवती आराधना, तिलोयपण्णति आदि तथा आचार्य कुन्दकुन्द विरचित समयसार, प्रवचनसार, पंचास्तिकायसार, नियमसार, अष्टपाहुड आदि आगम तुल्य ग्रन्थों को ही वे आगम के स्थान पर स्वीकार करते हैं। जहाँ तक यापनीय परम्परा का प्रश्न है, वे 12 अंग आगमों और 14 प्राकृत का जैन आगम साहित्य : एक विमर्श / 40 Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org

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