Book Title: Prakrit ka Jain Agam Sahitya Ek Vimarsh
Author(s): Sagarmal Jain
Publisher: Prachya Vidyapith Shajapur

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Page 43
________________ अंग बाह्य आगमों को स्वीकार करते हैं। उनके अनुसार, आगम पूर्णतः विलुप्त नहीं हुए, यद्यपि उनके ज्ञाता आचार्यो की परम्परा का विच्छेद हुआ है। मूल में उनके द्वारा मान्य आगम श्वेताम्बर परम्परा द्वारा उन्ही नामों के आगमों से पूर्णतः भिन्न नहीं थे, अपराजितसूरि ने अपनी भगवती आराधना की टीका में उन आगमों से अनेक पाठ उद्धृत किये है। उनके द्वारा उदधृत आगमों के पाठ आज भी शौरसेनी एवं अर्द्धमागधी के प्राकृत भेद एवं कुछ पाठान्तर के साथ आज भी श्वेताम्बरों द्वारा मान्य उन नामों वाले आगमों में मिलते हैं। दिगम्बर और यापनीय परम्परा में मूलभूत अन्तर यही है दिगम्बर परम्परा आगमों का पूर्ण विच्छेद मानती है, जबकि यापनीय उनमें आये आंशिक पाठभेद को स्वीकार करके भी उनके अस्तित्व को नकारते नहीं हैं। वे उन आगम ग्रन्थों के आधार पर रचित कुछ आगम तुल्य ग्रन्थों को भी मान्य करती थी। इनमें कसायपाहुड, छक्कखण्डागम, भगवती आराधना, मूलाचार आदि उन्हें मान्य रहे थे। आज यह परम्परा विलुप्त है और इनके द्वारा रचित कुछ ग्रन्थ भी दिगम्बर परम्परा द्वारा मान्य किये जाते हैं। फिर भी, इतना निश्चित है कि यापनीयों द्वारा मान्य आगम श्वेताम्बर परम्परा मान्य आगमों से नितान्त भिन्न नहीं थे। अपराजितसूरि ने स्पष्टतः यह उल्लेख किया है कि उनके द्वारा मान्य आगमं 'माथुरी वाचना' के थे। यह वाचना लगभग ईसा की तीसरी शताब्दी में स्कंदिल की अध्यक्षता में मथुरा में हुई थी। इस वाचना के समान्तर नागार्जुन की अध्यक्षता में वल्लभी में भी एक वाचना हुई थी। देवर्द्धिगणि में इस नागार्जुनीय वाचना के स्थान पर माथुरी वाचना को ही आधार माना था। इससे भी यह फलित होता है कि यापनीय आगम देवर्द्धिगणि की वाचना से बहुत भिन्न नहीं थे। स्कंदिल की इस माथुरी वाचना में ही आगम पाठों की भाषा पर शौरसेनी प्राकृत का प्रभाव आया होगा। आगम साहित्य की भाषा जैनों के आगम साहित्य की भाषा को सामान्यतया प्राकृत कहा जा सकता है फिर भी यह ध्यान रखना आवश्यक है, कि जहाँ श्वेताम्बर आगम साहित्य की भाषा अर्द्धमागधी प्राकृत कही जाती है, वही दिगम्बर एवं यापनीय परम्परा द्वारा मान्य आगम तुल्य ग्रन्थों की भाषा शौरसेनी प्राकृत कही जाती प्राकृत का जैन आगम साहित्य : एक विमर्श / 41 Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org

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