________________ शौरसेनी आगमों में उपलब्ध हैं, अर्द्धमागधी आगमों में उनका प्रायः अभाव ही है। कुन्दकुन्द के समयसार के समान उनमें सैद्धान्तिक दृष्टि से अध्यात्मवाद के प्रतिस्थापन का भी कोई प्रयास परिलक्षित नहीं होता। यद्यपि ये सब उनकी कमी भी कही जा सकती है, किन्तु चिन्तन के विकास क्रम की दृष्टि से विचार करने पर स्पष्ट रूप से यह फलित होता है कि अर्द्धमागधी आगम साहित्य प्राथमिक स्तर का होने से प्राचीन भी है और साथ ही विकसित शौरसेनी आगमों के लिए आधार-भूत भी। समवायांग में जीवस्थानों के नाम से 14 गुणस्थानों का मात्र निर्देश है, जबकि षट्खण्डागम जैसा प्राचीन शौरसेनी आगम भी उनकी गम्भीरता से चर्चा करता है। मूलाचार, भगवती आराधना, कुन्दकुन्द के ग्रन्थ और गोम्मटसार आदि सभी में गुणस्थानों की विस्तृत चर्चा है। चूंकि तत्त्वार्थ में गुणस्थानों की चर्चा का एवं स्याद्वाद-सप्तभंगी का अभाव हैं, अतः वे सभी रचनाएँ तत्त्वार्थ के बाद की कृतियाँ मानी जा सकती हैं। आगम साहित्य की विशेषता(अ) तथ्यों का सहज संकलन ___अर्द्धमागधी आगमों में तथ्यों का सहज संकलन किया गया है, अतः अनेक स्थानों पर सैद्धान्तिक दृष्टि से उनमें भिन्नताएँ भी पायी जाती हैं। वस्तुतः, ये ग्रन्थ अकृत्रिम भाव से रचे गये हैं और उनके सम्पादन काल में भी संगतियुक्त बनाने का कोई प्रयास नहीं किया गया है। एक और उत्सर्ग की दृष्टि से उनमें अहिंसा की सूक्ष्मता के साथ पालन करने के निर्देश हैं, तो दूसरी और अपवाद की अपेक्षा से ऐसे अनेक विवरण भी हैं, जो इस सूक्ष्म अहिंसक जीवनशैली के अनुकूल नहीं है। इसी प्रकार एक ओर उनमें मुनि की अचेलता का प्रतिपादन–समर्थन किया गया है, तो दूसरी और वस्त्र–पाकृत्र के साथ-साथ मुनि. के उपकरणों की लम्बी सूची भी मिल जाती है। एक ओर केशलोच का विधान है, तो दूसरी ओर क्षुर-मुण्डन की अनुज्ञा भी है। उत्तराध्ययन में, वेदनीय के भेदों में क्रोध वेदनीय आदि का उल्लेख है, जो कि कर्मसिद्धान्त के ग्रन्थों में यहाँ तक कि स्वयं उत्तराध्ययन के कर्मप्रकृति नामक अध्ययन में भी अनुपलब्ध है। उक्त साक्ष्यों से ऐसा प्रतीत होता है कि अर्द्धमागधी आगम साहित्य जैन संघ का निष्पक्ष इतिहास प्रस्तुत करता है। प्राकृत का जैन आगम साहित्य : एक विमर्श / 43 Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org