Book Title: Prakrit ka Jain Agam Sahitya Ek Vimarsh
Author(s): Sagarmal Jain
Publisher: Prachya Vidyapith Shajapur

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Page 26
________________ शताब्दी नहीं माना जा सकता। डॉ. हर्मन याकोबी ने यह निश्चित किया है। कि आगमों का प्राचीन अंश ई.पू. चौथी शताब्दी के उत्तरार्द्ध से लेकर ई.पू... तीसरी शताब्दी के पूर्वार्द्ध के बीच का है। न केवल अंग आगम, अपितु दशाश्रुतस्कन्ध, बृहत्कल्प और व्यवहार भी, जिन्हें आचार्य भद्रबाहु की रचना माना जाता है याकोबी और शुबिंग के अनुसार ई.पू. चतुर्थ शती के उत्तरार्द्ध से ई.पू. तीसरी शती के पूर्वार्द्ध में निर्मित हैं। पं. दलसुखभाई आदि की . मान्यता है कि आगमों का रचनाकाल प्रत्येक ग्रन्थ की भाषा, छन्दयोजना, विषय-वस्तु और उपलब्ध आन्तरिक और बाह्य साक्ष्यों के आधार पर, ही निश्चित किया जा सकता है। आचारांग का प्रथम श्रुतस्कन्ध अपनी भाषा-शैली, विषय-वस्तु, छन्दयोजना आदि की दृष्टि से महावीर की वाणी के सर्वाधिक निकट प्रतीत होता है। उसकी औपनिषदिक शैली भी यही बताती है कि वह एक प्राचीन ग्रन्थं है। उसका काल किसी भी स्थिति में ई.पू. दूसरी या प्रथम शती से परवर्ती नहीं है। सूत्रकृतांग भी एक प्राचीन आगम है। उसकी भाषा, छन्दयोजना एवं उसमें विभिन्न दार्शनिक परम्पराओं तथा ऋषियों के जो उल्लेख मिले हैं, उनके आधार पर यह कहा जा सकता है कि वह भी ई.पू. चौथी-तीसरी शती से बाद का नहीं हो सकता, क्योंकि उसके बाद विकसित दार्शनिक मान्यताओं का उसमें कहीं कोई उल्लेख नहीं है। उसमें उपलब्ध वीरस्तुति में भी अतिरंजनाओं का प्रायः अभाव ही है। अंग आगमों में तीसरा क्रम स्थानांग का आता है। स्थानांग, बौद्ध आगम अंगुत्तरनिकाय की शैली का ग्रन्थ है। ग्रन्थ-लेखन की यह शैली भी प्राचीन रही है। स्थानांग में नौ गणों और सात निहवों के उल्लेख को छोड़कर अन्य ऐसा कुछ भी नहीं है, जिससे उसे परवर्ती कहा जा सके। हो सकता है कि जैनधर्म के इतिहास की दृष्टि से महत्त्वपूर्ण होने के कारण ये उल्लेख उसमें अन्तिम वाचना के समय प्रक्षिप्त किये गये हों। उसमें जो दस दशाओं और उसमें प्रत्येक के अध्यायों के नामों का उल्लेख है, वह भी उन आगमों की प्राचीन विषय-वस्तु का निर्देश करता है। यदि वह वलभी के वाचनाकाल में निर्मित हुआ होता, तो उसमें दस दशाओं की जो विषय-वस्तु वर्णित है, वह भिन्न होती, अतः उसकी प्राचीनता में संदेह नहीं किया जा सकता। समवायांग, स्थानांग की अपेक्षा एक परवर्ती ग्रन्थ है। इसके प्रारम्भ में द्वादश अंगों का स्पष्ट उल्लेख है, साथ ही इसमें प्राकृत का जैन आगम साहित्य : एक विमर्श / 24 Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org

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