Book Title: Prakrit ka Jain Agam Sahitya Ek Vimarsh Author(s): Sagarmal Jain Publisher: Prachya Vidyapith Shajapur View full book textPage 6
________________ वैदिक साहित्य और प्राकृत आगम साहित्य वैदिक साहित्य में 'वेद' प्राचीनतम हैं। वेदों के सन्दर्भ में भारतीय . दर्शनों में दो प्रकार की मान्यताएँ उल्लिखित हैं। मीमांसक दर्शन के अनुसार वेद अपौरुषेय है, अर्थात् किसी व्यक्ति विशेष द्वारा निर्मित नहीं हैं। उनके अनुसार, वेद अनादि-निधन है, शाश्वत हैं, न तो उनका कोई रचयिता है और न ही रचनाकाल / नैयायिकों की मान्यता इससे भिन्न है, वे वेद-वचनों को ईश्वर-सृष्ट मानते हैं। उनके अनुसार, वेद अपौरुषेय नहीं, अपितु ईश्वरकृत हैं। ईश्वरकृत होते हुए भी ईश्वर के अनादि-निधन होने से वेद भी अनादि-निधन माने जा सकते हैं, किन्तु जब उन्हें ईश्वरसृष्ट मान लिया गया है, तो फिर अनादि कहना उचित नहीं है, क्योंकि ईश्वर की अपेक्षा से तो वे सादि ही होंगे। जहाँ तकं जैनागमों का प्रश्न है, उन्हें अर्थ-रूप में अर्थात् कथ्य विषय-वस्तु की अपेक्षा से तीर्थंकरों के द्वारा उपदिष्ट माना जाता है। इस दृष्टि से वे अपौरुषेय नहीं हैं। वे अर्थ-रूप में तीर्थंकरों द्वारा उपदिष्ट और शब्द-रूप में गणधरों द्वारा रचित माने जाते हैं, किन्तु यह बात भी केवल अंग आगमों के सन्दर्भ में है। अंगबाह्य आगम ग्रन्थ तो विभिन्न स्थविरों और पूर्वधर-आचार्यों की कृति माने ही जाते हैं। इस प्रकार, जैन आगम पौरुषेय (पुरुषकृत) हैं और काल विशेष में निर्मित हैं। किन्तु, जैन आचार्यों ने एक अन्य अपेक्षा से विचार करते हुए अंग आगमों को शाश्वत भी कहा है। उनके इस कथन का आधार यह है कि तीर्थंकरों की परम्परा तो अनादिकाल से चली आ रही है और अनन्तकाल तक चलेगी, कोई भी काल ऐसा नहीं, जिसमें तीर्थकर नहीं होते हैं। अतः इस दृष्टि से जैन आगम भी अनादि-अनन्त सिद्ध होते हैं। जैन मान्यता के अनुसार तीर्थकर भिन्न-भिन्न आत्माएँ होती हैं, किन्तु उनके उपदेशों में समानता होती है और उनके समान उपदेशों के आधार पर रचित ग्रन्थ भी समान ही होते हैं। इसी अपेक्षा से नन्दीसूत्र में आगमों को अनादि-निधन भी कहा गया है। तीर्थंकरों के कथन में चाहे शब्द-रूप में भिन्नता हो, किन्तु अर्थ-रूप में भिन्नता नहीं होती है, अतः अर्थ या कथ्य की दृष्टि से यह एकरूपता ही जैनागमों को प्रवाह की अपेक्षा से अनादि-अनन्त सिद्ध करती प्राकृत का जैन आगम साहित्य : एक विमर्श / 04 Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.orgPage Navigation
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