Book Title: Prakrit ka Jain Agam Sahitya Ek Vimarsh
Author(s): Sagarmal Jain
Publisher: Prachya Vidyapith Shajapur

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Page 7
________________ है। नन्दीसूत्र (सूत्र 58) में कहा गया है "यह जो द्वादश-अंग या गणिपिटक है, वह ऐसा नहीं है कि यह कभी नहीं था, कभी नहीं रहेगा और न कभी होगा। यह सदैव था और सदैव रहेगा। यह ध्रुव, नित्य शाश्वत, अक्षय, अवस्थित और नित्य है। इस प्रकार, जैन चिन्तक एक ओर प्रत्येक तीर्थकर के उपदेश के आधार पर उनके प्रमुख शिष्यों के द्वारा शब्द-रूप में आगमों की रचना होने की अवधारणा को स्वीकार करते हैं तो दूसरी ओर अर्थ या कथ्य की दृष्टि से समरूपता के आधार पर यह भी स्वीकार करते हैं कि अर्थ-रूप से जिनवाणी सदैव थी और सदैव रहेगी। वह कभी भी नष्ट नहीं होती है। विचार की अपेक्षा से आगमों की शाश्वतता और नित्यता मान्य करते हुए भी जैन परम्परा उन्हें शब्द-रूप से सृष्ट और विच्छिन्न होने वाला भी मानती है। अनेकान्त की भाषा में कहें, तो तीर्थकर की अनवरत परम्परा की दृष्टि से आगम शाश्वत और नित्य हैं, जबकि तीर्थकर-विशेष के शासन की अपेक्षा से वे सृष्ट एवं अनित्य हैं। - वैदिक साहित्य और जैनागमों में दूसरा महत्वपूर्ण अन्तर यह है कि वेदों के अध्ययन में सदैव ही शब्द-रूप को महत्व दिया गया और यह माना गया कि शब्द-रूप में कोई परिवर्तन नहीं होना चाहिए, उसका अर्थ स्पष्ट हो या न हो। इसके विपरीत, जैन परम्परा में तीर्थंकरों को अर्थ का प्रवक्ता माना गया और इसलिए इस बात पर बल दिया गया कि चाहे आगमों में शब्द-रूप में भिन्नता हो जाये किन्तु उनमें अर्थ-भेद नहीं होना चाहिए। यही कारण था कि शब्द-रूप की इस उपेक्षा के कारण परवर्तीकाल में आगमों में अनेक भाषिक परिवर्तन हुए और आगम पाठों की एकरूपता नहीं रह सकी। यद्यपि. विभिन्न संगीतियों के माध्यम से एकरूपता बनाने का प्रयास हुआ, लेकिन उसमें पूर्ण सफलता नहीं मिल सकी / यद्यपि वह शब्द-रूप परिवर्तन भी आगे निर्बाध रूप से न चले, इसलिए एक ओर उन्हें लिपिबद्ध करने का प्रयास हुआ, तो दूसरी ओर आगमों में पद, अक्षर, अनुस्वार आदि में परिवर्तन करना भी महापाप बताया गया। इस प्रकार, यद्यपि आगमों के भाषागत स्वरूप को स्थिरता तो प्रदान की गयी, फिर भी शब्द की अपेक्षा अर्थ पर अधिक बल दिये जाने के कारण जैनागमों का स्वरूप पूर्णतया अपरिवर्तित नहीं रह सका, जबकि वेद शब्द-रूप में अपरिवर्तित रहे। आज भी उनमें ऐसी प्राकृत का जैन आगम साहित्य : एक विमर्श / 05 Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org

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