Book Title: Prakrit evam Jainvidya Shodh Sandarbha Author(s): Kapurchand Jain Publisher: Kailashchandra Jain Smruti NyasPage 14
________________ उपक्रम INTRODUCTION दोहन के बिना दूध और मन्थन के बिना नवनीत नहीं मिलता। अनन्त सागर में गोता लगाकर बहुमूल्य मोती निकालने वाले अभिनन्दनीय और वन्दनीय होते हैं। प्राकृत, अपभ्रंश और जैन विद्या के सागर में गोता लगाकर अनुसंधान निष्कर्ष रूपी मोती खोजने वाले धन्य हैं, उनकी चर्चा-प्रचर्चा होनी ही चाहिए। हमारी भारतीय संस्कृति की श्रमण विचारधारा की एक धारा जैन धर्म का समग्र प्राचीन साहित्य प्राकृत भाषा में निबद्ध है। प्राकृत के अतिरिक्त अपभ्रंश, संस्कृत और हिन्दी में भी पर्याप्त जैन साहित्य लिखा गया। दक्षिण भारतीय भाषायें भी जैन साहित्य से अछूती नहीं हैं। विपुलता की दृष्टि से जैन साहित्य कम नहीं है, पर अत्यन्त खेद का विषय है कि इसे धार्मिक साहित्य कहकर मध्यकाल में इसकी उपेक्षा की गई। प्रसन्नता का विषय है कि उन्नीसवीं और बीसवीं शताब्दी में प्राच्य और पाश्चात्य विद्वानों का ध्यान जैनागम और आगमेतर विषयों की ओर गया, फलतः अनेक गवेषणात्मक और तुलनात्मक ग्रन्थ लिखे गये। शोध उपाधियों के लिए भी विभिन्न विश्वविद्यालयों के अन्तर्गत अनेक शोध प्रबन्ध लिखे गये और लिखे जा रहे हैं। प्राकृत एवं जैन विद्याओं पर हुए शोधकार्य की कोई प्रामाणिक और सम्पूर्ण सूची प्रकाशित नहीं हुई थी, जो सूचियाँ प्रकाशित भी हुईं, वे एक बार ही प्रकाशित होकर रह गईं। इस कमी को पूर्ण करने के लिए हमने 1988 में विश्वविद्यालय अनुदान आयोग, नई दिल्ली के आर्थिक सहयोग से A Survey of Prakrit and Jainological Research प्रोजेक्ट पर कार्य किया। आयोग को भेजी गई रिपोर्ट का 1988 में श्री कैलाश चन्द जैन स्मृति न्यास की ओर से 'प्राकृत एवं जैन विद्या : शोधसन्दर्भ' के नाम से प्रकाशन हुआ। इसमें 452 शोध प्रबन्धों की सूची दी गई थी। __अप्रैल 1990 में श्रद्धेय पं० जगन्मोहन लाल शास्त्री साधुवाद समारोह के अवसर पर सतना में आयोजित विशाल विद्वत् संगोष्ठी में हमने शोध सन्दर्भ के अनुपूरक के रूप में 72 शोध प्रबन्धों की सूची विद्वानों को भेंट की थी व डाक द्वारा प्रेषित की थी। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.orgPage Navigation
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