Book Title: Prakrit Gadya Sopan
Author(s): Prem Suman Jain
Publisher: Rajasthan Prakrit Bharti Sansthan Jaipur

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Page 177
________________ गयी, सार्थ तैयार हुआ और जल्दी से चल पड़ा । तब उसके पिता ने उसे कहा-'हे पुत्र ! देशान्तर दूर है, रास्ते भयानक हैं, लोग निष्ठर हैं, दुर्जन अधिक हैं, सज्जन विरले हैं, मित्र कठिनता से मिलते हैं, यौवन कठिन है, बड़ी मुश्किल से तुम पाले गये हो, कार्यों की गति विषम है, यमराज अर्नथ करने वाला है. क्रोधी चोर निरन्तर मिलते हैं। इसलिए कहीं पर पंडिताई से, कहीं पर मूर्खता से, कहीं चतुरता से, कहीं निष्ठुरता से, कहीं दयालुता से, कहीं निर्दयता से, कहों शूरता से, कहीं कायरता से, कहीं त्याग से, कहीं कंजूसी से, कहीं मान से, कहीं दीनता से, कहीं बुद्धिमानी से और कहीं मूर्खता से (अपना कार्य सिद्ध करना )। ऐसा कहकर वह पिता वापिस लौट गया। वह लोभदेव किसी समय के बाद दक्षिणापथ को पहुँचा । वहाँ सोपारक नगर में भद्रश्रेष्ठि नामक पुराने सेठ के घर में वह ठहरा । तब कुछ समय के बाद उसने अत्यधिक मोल से उन घोड़ों को बेच दिया । उससे बहुत अधिक धन का संचय किया । और उसको लेकर अपने देश की ओर वह सार्थवाह-पुत्र जाने को तैयार हो गया। 000 पाठ १६: राजा का व्यवहार दूसरे दिन प्रात:काल में समस्त कर्यों को करके मैं भैरवानन्द आचार्य के दर्शन के लिए उद्यान में गया। और व्याघ्रचर्म पर बैठे हए भैरवाचार्य को मैंने देखा। उनके द्वारा मेरा स्वागत किया गया। में उनके चरणों पर गिरा । आशीष देकर मृगचर्म दिखाकर उन्होंने मुझसे कहा-'इस पर बैठिए ।' मेंने कहा-'हे भगवन् ! यह उचित नहीं है कि अन्य दूसरे राजाओं के समान मुझसे व्यवहार किया जाय। दूसरे, इसमें आपका भी कोई दोष नहीं है, इस प्रकार की अनेक राजाओं से सेवित इस राज्यलक्ष्मी का ही यह दोष हैं कि मुझ जैसे शिष्य को भी आप अपना आसन प्रदान करते हुए ऐसा व्यवहार कर रहे हैं। भगवन् ! आप तो दूर मैं स्थित रहते हुए भी मेरे गुरु हैं।' इसके बाद मैं आने सेवक के दुपट्टे पर ही बैठ गया। 168 प्राकृत गर-सोपान Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org

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