Book Title: Prakrit Gadya Sopan
Author(s): Prem Suman Jain
Publisher: Rajasthan Prakrit Bharti Sansthan Jaipur

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Page 200
________________ गरम ख ता हुआ, गरम पानी पीता हुआ, बिना बिछौने के गरम भूमि पर सोता हुआ परम प्रसन्न दिखायी देता है। जो साधु हमेशा परमात्मा का स्मरण करता रहता है उसे ग्रीष्मकाल की गरमी का अनुभव क्यों होगा ? जिसके लिए (सुख की) सभी बाहरी उस्तुए त्याज्य हैं उस साधु के लिए सुख-दुःख की कल्पना क्या करना ? अहो ! मुनियों का मार्ग विचित्र ही है। इसी प्रकार ज्येष्ठ आश्रम वालों (गृहस्थों) के लिए वर्षा का समय भी. सुखकारी नहीं है । जब बादल बरसते हैं तब इधर-उधर सूर्य छिपने से घना अंधकार हो जाता है । हृदय को कंपाने वाली बिजली चमकने लगती है। ग़र्जन करता हुआ मेघ का शब्द कान के छेद को फाड़ने लगता है । गलियाँ कीचड़ युक्त हो जाती हैं । नदियाँ एवं नाले वेग से बहने लगते हैं । जब (बादलो में) छिपा हुआ सूर्य भी भीतरी गर्मी का अनुभव करता है (अर्थात् बाहर से ठडा हो जाता है) तब उस वर्षा ऋतु में अपनी पत्नी से रहित कौन व्यक्ति सुखी रहने में समर्थ होगा ? भाग्य से परवश प्रवास में रहने वाला कोई व्यक्ति भी रात-दिन घर को याद करता रहता है। विदेश गये पति से रहित कोई माननी पत्नी भी पपीहा के 'पिउ-पिउ' शब्द से पति को याद करती हुई अत्यन्त आन्तरिक पीड़ा का अनुभव करती है। ऐमो उस वर्षा ऋतु में भी पानी भोजन का त्याग कर पर्वतों और गुफाओं में रहने वाले, शरीर और मन की समस्त चिन्ताओं से रहित सम्पूर्ण ब्रह्मचर्य के पालन से बढ़े हुए तेज वाले, ध्यान में लीन साधु-मुनि अपूर्व एवं बाधारहित सुख का अनुभक करते हुए समय व्यतीत करते हैं । अतः मुनियों के लिए सभी ऋतुए अनुकूल होती हैं । 000 पाठ २६ : नौकर की कर्तव्य बुद्धि शकार- यह बूढा सुअर (विट) अधर्म से डरने वाला है । अच्छा, (अबस्था रक (नामक) चेट (अपने नौकर) को मनाता हूँ। हे पुत्र ! स्थावरक ! चेट ! (तुम्हें) सोने के कान दूंगा। प्राकृत गद्य-सोपान Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org

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