Book Title: Prakrit Gadya Sopan
Author(s): Prem Suman Jain
Publisher: Rajasthan Prakrit Bharti Sansthan Jaipur

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Page 198
________________ शुकराज के ऐसे वचन सुनकर आनन्दित मन वाली वीरमती कहती है'हे शुकराज ! तुम सत्य बोलने वाले विद्वान् हो । तुम्हारे इन वचनों के कथन से पुलकित शरीर वाली मैं तुम्हें अपने जीवन से भी श्रेष्ठ मानती हूँ। इस उपवन में तुम्हारा आगमन अपनी इच्छा से हुआ है अथवा अन्य किसी की प्रेरणा से ?' - वह तोता कहता है - 'किसी विद्याधर के द्वारा स्नेहपूर्वक पाला हुआ में पिंजड़े में रख दिया गया था । उसके आदेश से समस्त कायों को करता हुआ मैं उसके चित्त का मनोरंजन करता था। एक बार मुझे लेकर वह विद्याधर मुनि की वंदना करने के लिए गया । मुनीन्द्र को हाथ जोड़कर प्रणामकर वह उनके सामने बैठ गया। मुनिवर के दर्शन से पाप रहित मैं भी उनका ही ध्यान करता हुआ वहाँ रुका। मुनिवर ने मधुर भाषा में धर्मोपदेश दिया। उपदेश के अन्त में पिंजड़े में स्थित मुझे देखकर उन्होंने कहा- 'जो व्यक्ति तिर्यन्चों (पशु-पक्षी) को बांधकर रखने में आसक्त होता है उसे महापाप होता है। उसके हृदय में दया नहीं होती है। दया के बिना धर्म की सिद्धि कैसे होगी ? बन्धन में पड़े हुए प्राणी बहुत अधिक दुख का अनुभव करते हैं । अत: धर्म चाहने वाले लोगों के द्वारा किसी भी प्राणी को बन्धन में नहीं डालना चाहिए । सबको (स्वतन्त्रता का) सुख प्रिय है । कहा भी है-... माया- 3. 'सभी प्राणी सुख में रहना चाहते हैं, सभी प्राणी दुःख से दुखी होते हैं । अतः सुख चाहने वाला व्यक्ति दूसरों को भी सुख देता है । सुख प्रदान करने वाले सुखों को प्राप्त करते हैं।' इत्यादि वचनों से प्रतिबोधित उस विद्याधर ने व्रत-नियमों को ग्रहण किया और बन्धन से मुझे मुक्त कर दिया। तब मैं उन मुनीन्द्र को नमनकर उनके उपकार को स्मरण करता हुआ कई बनों को पार करता हुआ, .आनन्दित होता हुआ यहाँ आकर आम्र के वृक्ष की शाखा पर बैठा और तुम्हारे द्वारा देखा गया । इसलिए हे देवी ! मेरे सामने कुछ भी गोपनीय नहीं है, झूठ नहीं कहता हूँ। तुम्हारी चिन्ता को अवश्य दूर करूंगा।'... 000 मात्र सब-सोपान 182 Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org

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