Book Title: Prakrit Gadya Sopan
Author(s): Prem Suman Jain
Publisher: Rajasthan Prakrit Bharti Sansthan Jaipur

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Page 203
________________ द्वितीय सिपाही- अरे चोर ! क्या हम लोगों के द्वारा (तुम्हारी) जाति पूछी गयी परुष कोतवाल - अरे सूचक ! क्रमवार उसे सब कुछ कहने दो । उसे बीच में टोको मत । दोनों सिपाही- श्रीमान् जी ! जो आज्ञा दें। (मछुआरे) से आगे बता । परुष - मैं जाल से निकलने वाली एवं अन्य रूप से मछलियों को पकड़ने के धन्धे (उपाय) से (अपने) परिवार का भरण-पोषण करता हूँ। कोतवाल - (मुस्कराकर) तब तो (तुम्हारी) बड़ी पवित्र आजीविका है । -- हे स्वामी ! ऐसा न कहें। क्योंकि--- जन्म से (परिवार में) चले आ रहे निन्दित कार्य को भी सहजता से छोड़ देना बड़ा कठिन है । अनुकम्पा से दयालु यज्ञ करने वाला ब्राह्मण भी पशुबलि करते समय कठोर हो जाता है । कोतवाल -- अच्छा आगे क्या हुआ ? पुरुष -- एक दिन जब मेरे द्वारा रोहित मछली के टुकड़े किये गये, तब उसके पेट के भीतर रत्न से चमकती हुई यह अंगूठी (मेरे द्वारा) देखी गयी । बाद में उसी अंगूठी को बेचने के लिए दिखाते हुए मैं आप महानुभावों के द्वारा पकड़ लिया गया हूँ। अत: आप मुझे मारें, चाहें छोड़ दें, इस अंगूठी के मिलने का यही वृतान्त है । कोतवाल -- जानुक ! कच्चे मांस की गंध वाला यह आदमी निश्चित ही मछुआरा . ही है । अंगूठी मिलने का उसका वृतान्त भी विचारणीय है (ठीक ___ लगता है) । अत: अब हम लोग राज-दरबार में ही चलें । दोनों सिपाही- ठीक है, ऐसा ही करें । अरे गिरहकट (चोर) ! चल । 000 पाठ ३१: कवि-गोष्ठी राजा -- काव्य के कथनों की कुशलता से तथा रीतियों (काव्य-शैली) के अनोखे पन से विचक्षणा (नामक दासी) सचमुच विचक्षणा (विदुषी) है । 194 प्राकृत गद्य-सोपान Jain Educationa International www.jainelibrary.org For Personal and Private Use Only

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