Book Title: Prakrit Gadya Sopan
Author(s): Prem Suman Jain
Publisher: Rajasthan Prakrit Bharti Sansthan Jaipur

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Page 185
________________ "विष खा लेना अच्छा, अग्नि में प्रवेश कर जाना अच्छा, फांसी लगा लेना अच्छा, पर्वत से गिर जाना अच्छा किन्तु शील को खंडित करना अच्छा नहीं है ।" अत: इस राजा को किसी उपाय से समझाती हूँ ।' ऐसा सोचकर - ' महाराज का स्वागत हैं' प्रसन्तापूर्वक ऐसा कहकर और आसन प्रदान कर उसने राजा के चरण धोंए । मनोहर भोजन तैयार किया । एक ही भोजन को बहुत-सी थालियों में सजाया । उन थालियों को सुन्दर चित्रों वाले रेशमी कपड़ों से ढका । तब उसने कहा- 'महाराज ! मेरे ऊपर कृपा करिये । और मनोनुकूल भोजन कीजिए ।' राजा भी अनुराग से उसका अनुकरण करता हुआ भोजन के लिए बैठा । वह मनोहर कपड़ों से ढकी हुई नयी बहुत-सी थालियों को देखता है - 'अहो ! मु रिझाने के लिए इसने विविध प्रकार की रसोई की है' ऐसा सोचकर राजा संतुष्ट हुआ। उस मदनश्री ने भी सभी थालियों से थोड़ा-थोड़ा लेकर एक ही प्रकार का भोजन परोसा दिया । तब कौतुकता से राजा ने कहा- 'एक ही भोजन के लिए बहुत-सी थालियां का क्या कारण है ?' उसने कहा - 'नयापन ही इनकी विशेषता है ।' राजा ने बह 'इस प्रकार के निरर्थक विशेषण से क्या लाभ ?' मदनश्री ने कहा - 'महाराज ! यदि ऐसा है तो युवतियों के शरीरों में भी बाठ्य नवीनता के अतिरिक्त और कौन-सी विशेषता है ? क्योंकि भीतर से वसा, मांस, मज्जा, शुक्र, फुफ्फस, रुधिर, हड्डि आदि अपवित्रता का घर होने से सभी युवतियों का शरीर एक-सा है । इसी प्रकार महाराज ! अपनी पत्नी के विद्यमान होने पर दूसरी स्त्रियों में अनुराग करने का कोई कारण नहीं है ।' यह सुनकर वैराग्य को प्राप्त वह राजा विक्रमसेन कहता है - 'हे सुन्दरी ! तुमने ठीक आचरण किया, जो अज्ञान से मोहित मुझको प्रतिबोध दिया।' ऐसा कहकर और भारी पारितोषिक देकर वह राजा अपने भवन में चला गया । 176 Jain Educationa International For Personal and Private Use Only 000 प्राकृत गद्य-सोपाळ www.jainelibrary.org

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