Book Title: Prachin Jain Itihas Sangraha Part 11
Author(s): Gyansundar Maharaj
Publisher: Ratnaprabhakar Gyan Pushpmala

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Page 6
________________ ( ५ ) पूजा का उपदेश दिया और वहाँ के भक्त लोगों ने उस आज्ञा को तत्क्षण शिरोधार्य कर आदि तीर्थङ्कर ऋषभदेव का विशाल मन्दिर बनवाना प्रारम्भ कर दिया । आचार्य महाराज ने एक मास तक वहाँ ठहर उन नूतन जैनों (श्रावकों ) को जैन-धर्म के स्याद्वाद सिद्धान्त की शिक्षा देकर तथा उनको जैन धर्म का आचार व्यवहार बता उनकी श्रद्धा को दृढ़ कर दिया । अनन्तर आचार्य देव ने एक दिन यह सम्वाद सुना कि श्राबू के पास पद्मावती नगरी है वहाँ भी एक ऐसा ही विशाल यज्ञ होना निश्चित हुआ है और उस यज्ञ में भी बलिदान के लिये लाखों पशु इकट्ठे किये गये हैं । फिर क्या देरी थी, सुनते ही सूरिजी ने आबू की ओर विहार किया । क्योंकि वीर पुरुष जब एक बार अपने इष्ट कार्य में सफलता प्राप्त कर लेता है तब उसकी अन्त रात्मा में एक अदम्य उत्साह शक्ति तथा प्रभूत पौरुष का संचार हो जाता है और वह बिना विलम्ब के तत्क्षण ही दूसरी बार कार्य क्षेत्र में कूद पड़ने को कटिबद्ध हो जाता है। बस ! आचार्य श्री भी इस विचार से पद्मावती पहुँच गये और साथ ही उनकी शिष्य मंडली तथा श्रीमाल नगर के श्रावक भी वहाँ जा धमके क्योंकि ऐसा अवसर वे भी तो कब चूकने वाले थे । वहाँ जाकर आचार्य श्री सीधे ही राज सभा में पहुँच कर राजा एवं यज्ञाध्यक्षों को तथा उपस्थित नागरिकों को संबोधित कर अहिंसा के विषय में * तच्छिष्या समाजायन्त, श्री स्वयंप्रभसूरयः । विहरन्त क्रमेणैयुः, श्री श्रीमालं कदापिते ॥ २० ॥ तस्थुस्ते तत्पुरोद्याने, मास कल्प मुनीश्वरा । उपास्य मानाः सततं, भव्यैर्भवतरूच्छिदे ॥ २१ ॥

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