Book Title: Prachin Jain Itihas Sangraha Part 11
Author(s): Gyansundar Maharaj
Publisher: Ratnaprabhakar Gyan Pushpmala

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Page 32
________________ - ( ३१ ) हानि उठानी पड़ती है । अतएव जैन श्रावकों को चाहिए कि वे खेंचा-तानी में न पड़ कर प्रभु पार्श्वनाथ की संतान का उपकेश गच्छ और महावीर की संतान एवं सौधर्म गच्छ को ही अपना गच्छ समझें, और पर्व जमाने में जितने प्रभावशाली आचार्य हुए हैं उन सब को पूज्य दृष्टि से देखें, तथा विशेष इस बात की शोध खोज करते रहें कि हमारे पूर्वजों को मांस मदिरादि दुर्व्यसन किन आचार्यों ने छुड़ाया। इसका पता लगा कर उनका उपकार विशेष रुप से मानें, क्योंकि ऐसा करने से ही जैनधर्म की आराधना होगी और इसीसे ही क्रमशः जन्म मरण मिटाकर मोक्ष के अक्षय सुखों के अधिकारी बन सकेंगे। सज्जनो ! उपरोक्त मेरे लेख से आप इतना तो समझ ही गए होंगे कि आचार्य रत्नप्रभसूरि ने सर्व प्रथम वीर सं० ७० में उपकेशपुर में महाजन सङ्घ की स्थापना की और बाद में भी आपकी सन्तान ने इसकी खूब वृद्धि की। ____ आचार्य रत्नप्रभसूरि के लघु गुरु भाई प्राचार्य कनकप्रभसूरि थे । आप और आपकी सन्तान ने प्रायः कोरंटपुर के आसपास ही भ्रमण कर धर्म प्रचार किया। इससे इस समूह का नाम कोरंट गच्छ प्रसिद्ध हुआ। इन्होंने भी महाजन. संघ की वृद्धि करने में उपकेश गच्छ के आचार्यों का हाथ बँटाया था। विक्रम की दूसरी शताब्दी में आचार्य यक्षदेवसूरि द्वारा सौधर्म गच्छ में चार कुल स्थापित हुए चन्द्रकुल, नागेन्द्रकुल निवृत्ति कुल और विद्याधर कुल । इन चार कुलों से विक्रम को ग्यारहवीं शताब्दी में कई गच्छ निकले । उनमें कई आचार्य ऐसे

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