Book Title: Prachin Jain Itihas Sangraha Part 11
Author(s): Gyansundar Maharaj
Publisher: Ratnaprabhakar Gyan Pushpmala

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Page 30
________________ ( २९ ) गच्छ की क्रिया करने लग गये। फिर तो था ही क्या, वे आचार्य या उनकी संतान ने उन श्रावकों पर यह छाप अंकित करदी कि तुम हमारे गच्छ के श्रावक हो । इतना ही क्यों बल्कि उन्होंने तो कई कल्पित ढंचे भी लिपिबद्ध कर दिये और उनमें प्रस्तुत जातियों की उत्पत्ति का समय अर्वाचीन बतला दिया । फिर भी तुर्रा यह कि उन कल्पित कलेवरों में उन जातियों के विषय में जिन नाम ग्राम समय आचार्य का उल्लेख किया है इतिहास में उनकी गन्ध तक भी नहीं मिलती है (देखो 'जैन जाति निर्णय' प्रथमाङ्क)। बात भी ठीक है कि जहाँ हवाई किले बना कर अपने इष्ट की सिद्धि करने का प्रयत्न किया जाता हो वहाँ इसके अलावा क्या मिल सकता है । साथ में उन भद्रिक श्रावकों के भी ऐसे सजड़ संस्कार: जम गये कि वे सत्य का संशोधन न कर केवल अपने आग्रह को ही अपना कर्तव्य समझ लिया है । यही कारण है कि इस कृतघ्नता के वज्रपाप से वे दिन प्रतिदिन रसातल में जा रहे हैं। क्योंकि एक. ही पिता के दो पुत्रों में गच्छों का इतना द्वेष ? इतना वैमनस्य ? इतना ही क्यों पर कभी कभी तो उन पूर्वाचार्यो को भला बुरा कहने में भी नहीं चूकते हैं। फिर भी मन्दिर मूर्तियों के दर्शन-पूजा वरघोड़ा तीर्थ - यात्रा का संघ प्रभावना स्वामिवात्सल्यादि कार्यों में चतुर्विधि संघ का ऐकत्र होने के कारण थोड़ा बहुत संगठन रह भी गया था, परन्तु कुदरत से वह भी सहन नहीं हो सका, अतएव धूम्रकेतु सदृश ढूंढियों और तेरह पंथियों के अलग आन्दोलन से वह भी नष्ट भ्रष्ट हो गया; और ये ( ढूंढिये तेरहपंथी ) लोग, जिन आचार्यों का महान् उपकार मानना चाहिये था, उल्टे उनके निन्दक बन

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