Book Title: Prachin Jain Itihas Sangraha Part 11
Author(s): Gyansundar Maharaj
Publisher: Ratnaprabhakar Gyan Pushpmala

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Page 25
________________ ( २४ ) 'भरती होते थे जो कि मन्दिर के नजदीक रहते थे । यदि एक पिता के दो पुत्र हों और वे पृथकू २ मन्दिरों के पास रहते हों तो नियमानुसार वे उन पृथक २ दो मन्दिरों के सभासद् बन जाते थे । इसी प्रकार एक बाप के अनेक पुत्र हों या एक गोत्र के अनेकों घर हों और वे सब अन्यान्य ग्रामों में रहते हों तो एक भाई एक ग्राम में एक मंदिर का और दूसरा भाई दूसरे ग्राम में दूसरे मंदिर का सभासद बन सकता था । अतः इस प्रकार की प्रवृत्ति से मंदिरों का प्रबन्ध खूब व्यवस्थित हो गया और यह प्रवृत्ति सर्वत्र फैल भी गई, जिससे उन मंदिरों की जुम्मेवारी का बोझा भी उन चैत्यावासियों के शिर से हलका हो गया और उन सभासदों की देख रेख में मंदिरों का काम भी चारुतया चलता रहा । तथा इसके साथ एक यह भी नियम बना दिया कि जब कभी तुम किन्ही प्रसंगों पर मंदिरों को कुछ अर्पण करना चाहो तो जिस मंदिर के तुम सभासद हो उस मंदिर में अन्य मंदिरों से द्विगुण द्रव्य देना; क्योंकि इससे दान देने वाले को ही नहीं पर उनकी वंश परम्परा को भी इस बात का स्मरण रहे कि यह हमारा मंदिर है इत्यादि । जिस समय उक्त प्रवृति प्रारंभ हुई उस समय उन चैत्यवासी आचार्यों के सरल हृदय का उद्देश्य चाहे मंदिरों के रक्षण करने का ही होगा तथा श्रावक लोग भी पास में मंदिर होने से सभासद बन गए होंगे, पर वे श्राचार्य तथा श्रावक अच्छी तरह से जानते थे कि अमुक श्रावक अमुक आचार्य का प्रतिबोधित श्रावक है और इसका अमुक गच्छ है । पर कालांतर में इसका रूप भी बदल गया और उन चैत्य

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