Book Title: Prachin Jain Itihas Sangraha Part 11
Author(s): Gyansundar Maharaj
Publisher: Ratnaprabhakar Gyan Pushpmala

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Page 22
________________ ( २१ ) पाट, लाट आदि प्रान्तों में इतने नूतन जैन बना दिये कि जिनकी संख्या लाखों नहीं पर करोड़ों तक पहुँच गई थी। किन्तु आचार्य भद्रबाहु के समय पूर्व भारत में एक द्वादश वर्षीय महा भयंकर दुष्काल पड़ा। इस हालत में वहाँ साधुओं का निर्वाह होता नहीं देख आचार्य भद्रबाहु आदि बहुत से साधुओं ने नेपाल आदि प्रान्तों की ओर विहार किया और शेष साधुओं ने वहीं रह कर ज्यों-त्यों करके अपना गुजारा किया । जब दुष्काल का अन्त हो सुकाल हो गया तब श्री संघ ने आमंत्रण पूर्वक भद्रबाहु स्वामी को बुला कर पाटलीपुर नगर में जैनों की एक सभा की, इत्यादि । इस कथन से कहा जा सकता है कि आचार्य भद्रबाहु के समय तक तो सौधर्माचार्य की संतान का विहार-क्षेत्र प्रायः पूर्व भारत ही रहा । पर बाद में वीर की तीसरी शताब्दी में पूर्व में फिर एक दुष्काल पड़ा और उस समय शायद पूर्व विहारी साधु गण ने पश्चिम भारत की ओर विहार किया हो तो यह संभव हो सकता है, क्योंकि आचार्य सुहस्तीसूरि ने उज्जैन नगरी में पधार कर सम्राट् संप्रति को प्रतिबोध दे जैन धर्म का उपासक बनाया और सम्राट् के आग्रह एवं प्रयत्न से उज्जैन में आचार्य सुहस्तीसूरि की अध्यक्षता में जैनों की एक विराट सभा हुई और उसमें जैन धर्म के प्रचार के लिए खूब ही जोर दिया गया एवं सम्राट् संप्रति की सहायता से आचार्य सुहस्तीसूरि ने श्रमण संघ को पश्चिम भारतादि कई प्रान्तों में जैन धर्म का प्रचार करने को भेज पार्श्वनाथ के संतानियों का हाथ बँटाया होगा। पर उस समय विशेष गच्छों का प्रादुर्भाव नहीं हुआ बल्कि अखिल जैन शासन में मुख्य दो ही गच्छ थे धर्म का उपासका मुहस्तीसूरि काम के प्रचार के लि

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