Book Title: Prachin Digambaracharya aur unki Sahitya Sadhna Author(s): Rameshchandra Jain Publisher: Z_Yatindrasuri_Diksha_Shatabdi_Smarak_Granth_012036.pdf View full book textPage 5
________________ टीका का नाम परिकर्म पद्धति चूडामणि चूडामणि व्याख्याप्रज्ञप्ति धवला महाधवला आचार्य आचार्य कुन्दकुन्द आचार्य शामकुण्ड आचार्य तुम्बुलूर समन्तभद्राचार्य देवगुरु आचार्य वीरसेन आचार्य जिनसेन यतीन्द्रसूरि स्मारक ग्रन्थ - जैन आगम एवं साहित्य शताब्दी श्लोक प्रमाण १२००० १२००० ९१००० ४८००५ Jain Education International ८००० ७२००० XXX द्वितीय शताब्दी तृतीय शताब्दी चौथी शताब्दी पंचम शताब्दी षष्ठ शताब्दी आठवीं शताब्दी नवम् शताब्दी आचार्य यतिवृषभ जयधवलाकार के उल्लेखानुसार आचार्य यतिवृषभ ने आर्यभक्षु और नागहस्ति के पास कषायपाहुड की गाथाओं का सम्यक् प्रकार अर्थ अवधारण करके सर्वप्रथम उन चूर्णिसूत्रों की रचना की। श्वेताम्बर - ग्रंथों में एक स्थान पर चूर्णिपद का लक्षण इस प्रकार दिया गया है. - अत्थबहुलं महत्थं हेउ निवाओवसग्गगंभीरं । बहुपायमवोच्छिन्नं गम नय सुद्धं तु चुण्णपयं ॥ अर्थात् जो अर्थ-बहुल हो, महान् अर्थ का धारक या प्रतिपादक हो, हेतु, निपात और उपसर्ग से युक्त हो, गम्भीर हो, अनेक पाद - समन्वित हो, अव्यवच्छिन्न हो अर्थात् जिसमें वस्तु का स्वरूप धारा प्रवाह से कहा गया हो तथा जो अनेक प्रकार के जानने के उपाय और नयों से शुद्ध हो, उसे चूर्णि सम्बन्धी पद कहते हैं। चूर्णिसूत्रों की रचना संक्षिप्त होते हुए भी बहुत स्पष्ट, प्राञ्जल और प्रौढ़ है, कहीं एक शब्द का भी निरर्थक प्रयोग नहीं हुआ है। कहीं-कहीं संख्यावाचक पद के स्थान पर गणनाङ्कों का भी प्रयोग किया गया है, तो जयधवलाकार ने उसकी भी महत्ता और सार्थकता प्रकट की है। चूर्णिसूत्रों के अध्ययन से ज्ञात होता है कि चूर्णिकार के सामने जो आगम सूत्र उपस्थित थे और उनमें जिन विषयों का वर्णन उपलब्ध था, उन विषयों को प्रायः यतिवृषभ ने छोड़ दिया है, किन्तु जिन विषयों का वर्णन उनके सामने उपस्थित आगमिक साहित्य में नहीं था और उन्हें जिनका विशेष ज्ञान गुरुपरम्परा से प्राप्त हुआ था, उनका उन्होंने प्रस्तुत चूर्णि में विस्तार से वर्णन किया है। इसके साक्षी बंध और संक्रम आदि अधिकार हैं । यतः महाबंध में चारों प्रकारों के बंधों का अतिविस्तृत विवेचन उपलब्ध था, अतः उसे एक सूत्र में ही कह दिया कि यह चारों प्रकार का बंध बहुशः प्ररूपित है, किन्तु संक्रमण सत्त्व उदय और उदीरणा का विस्तृत विवेचन उनके समय तक किसी ग्रंथ में निबद्ध नहीं हुआ था, अतएव उनका प्रस्तुत चूर्णि में बहुत विशद एवं विस्तृत वर्णन किया है। इसी से यह ज्ञात होता है कि यतिवृषभ का आगमिक ज्ञान कितना अगाध, गम्भीर और विशाल था । ४६ यतिवृषभ को आर्यभंक्षु और नागहस्ति जैसे अपने समय के महान् आगम वेत्ता और कषायपाहुड के व्याख्याता आचार्यो से प्रकृत विषय का विशिष्ट उपदेश प्राप्त था, तथापि उनके सामने और भी कर्मविषयक आगमसाहित्य अवश्य रहा है, जिसके आधार पर वे अपनी प्रौढ़ और विस्तृत चूर्णि को सम्पन्न कर सके हैं और कषायपाहुड की गाथाओं में एक-एक पद के आधार पर एक-एक स्वतंत्र अधिकार की रचना करने में समर्थ हो सके हैं। आचार्य यतिवृषभ की दूसरी कृति के रूप से तिलोयपण्णत्ती प्रसिद्ध है और वह सानुवाद मुद्रित होकर प्रकाशित है। कम्मपयडी की गाथाओं को कषायपाहुड चूर्णि का आधार बनाया गया है। इस आधार पर कम्पयडी भी यतिवृषभ कृत मानी जाती है। इसी प्रकार सतक और सित्तरी के रचयिता यतिवृषभ कहे गए हैं। यतिवृषभ आचार्य पूज्यपाद से पूर्व हुए हैं। इसका कारण यह है कि उन्होंने अपनी सर्वार्थसिद्धि में उनके एक मत विशेष का उल्लेख किया है। 'अथवा येषां मते सासादन एकेन्द्रियेषु नोत्पद्यते तन्मतापेक्षया द्वादश भागा न दत्ता।' अर्थात् जिन आचार्यों के मन से सासादन गुणस्थानवर्ती जीव एकेन्द्रियों में उत्पन्न नहीं होता है, उनके मत की अपेक्षा १२/१४ भाग स्पर्शन क्षेत्र नहीं कहा गया है। यहाँ यह ज्ञातव्य है कि सासादन गुणस्थान वाला मरे, तो नियम से देवों में उत्पन्न होता है। यह आचार्य यतिवृषभ का मत है । इस उल्लेख से स्पष्ट है कि आचार्य यतिवृषभ आचार्य पूज्यपाद से पहले हुए हैं। चूँकि पूज्यपाद के शिष्य वज्रनन्दि ने वि.सं. ५२६ में द्रविड़ संघ की स्थापना की है और यतिवृषभ के मत का पूज्यपाद ने उल्लेख किया है, अतः उनका वि.सं. ५२६ के For Private Personal Use Only névärin www.jainelibrary.orgPage Navigation
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