Book Title: Prachin Digambaracharya aur unki Sahitya Sadhna
Author(s): Rameshchandra Jain
Publisher: Z_Yatindrasuri_Diksha_Shatabdi_Smarak_Granth_012036.pdf

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Page 16
________________ कवि परमेश्वर - आदिपुराण में कवि परमेश्वर या परमेष्ठी को वागर्थसंग्रह नामक पुराण-ग्रंथ का रचयिता कहा गया है । चामुण्डराय ने अपने पुराण में कवि परमेश्वर के नाम अनेक पद्य उद्धृत किए हैं। कन्नड़ - कवि आदिपम्प, अभिनव पम्प, नयसेन, अग्गलदेव और कमलभव आदि ने आदरपूर्वक कवि परमेश्वर का स्मरण किया है। आचार्य गुणभद्र ने परमेश्वर के कथाकाव्य को छन्द, अलंकार और गूढार्थ युक्त बतलाया है। इनके इस कथा - ग्रंथ की रचना गद्य में बतलाई गई है । ५२ जिनसेन द्वितीय - पंचस्तूपान्वयी स्वामी वीरसेन के पट्टशिष्य सेनसंघी आचार्य जिनसेन के माता-पिता, जन्मस्थान आदि की कोई प्रामाणिक जानकारी उपलब्ध नहीं है। जयधवला टीका की प्रशस्ति के अनुसार कर्णच्छेदन से भी पहले इन्होंने वीरसेन स्वामी के संघ में रहना प्रारंभ कर दिया था। आसन्नभव्यता, मोक्षलक्ष्मी की समुत्सुकता और ज्ञानलक्ष्मी के वरण हेतु इन्होंने बाल्यावस्था में ही ब्रह्मचर्य व्रत धारण कर लिया था। इनका शारीरिक आकार अधिक सुंदर नहीं था और न ये अधिक चतुर थे। श्री शम और विनय उनके नैसर्गिक गुण थे, जिसके कारण विद्वज्जन भी उनकी आराधना करते थे, क्योंकि गुणों के द्वारा कौन व्यक्ति आराधना को प्राप्त नहीं होता है । वे यद्यपि शरीर से कृश थे, किन्तु तपोगुण से कृश नहीं थे। शरीर से दुर्बल व्यक्ति दुर्बल नहीं होता है, किन्तु जो व्यक्ति गुणों से दुर्बल है, वही वास्तव में दुर्बल है। ज्ञान की आराधना में इनका समय निरंतर व्यतीत होता था, अतः तत्त्वदर्शी उन्हें ज्ञानमयपिण्ड कहा करते थे ५३ । उनके द्वारा रचित कृतियाँ निम्नलिखित हैं यतीन्द्रसूरि स्मारकग्रन्थ जैन आगम एवं साहित्य १. आदिपुराण, २. पार्श्वाभ्युदय, ३. जयधवला टीका, जिनसेन का काल ई. सन् की नवम शताब्दी का उत्तरार्द्ध माना जाता है। विद्यानन्द आचार्य विद्यानन्द ७७०-८४० ई. के विद्वान् माने जाते हैं। उन्होंने इतरदार्शनिकों के साथ नागार्जुन, वसुबन्धु, दिङ्नाग, धर्मकीर्ति, प्रज्ञाकर तथा धर्मोत्तर इन बौद्धदार्शनिकों के ग्रंथों का सर्वाङ्गीण अभ्यास किया था। इसके साथ ही साथ जैन दार्शनिक तथा आगमिक साहित्य भी उन्हें विपुल मात्रा में प्राप्त था। उनके द्वारा रचित ग्रन्थ निम्नलिखित हैं-- १. विद्यानन्द महोदय, २ तत्त्वार्थश्लोकवार्तिक, ३. अष्टसहस्री, ४. युक्त्यनुशासनालङ्कार, ५. आप्तपरीक्षा, ६. प्रमाणपरीक्षा, ७. पत्रपरीक्षा, ८. सत्यशासनपरीक्षा, ९. श्रीपुरपार्श्वनाथ स्तोत्र । Po - Jain Education International विद्यानन्द महोदय सम्प्रति अनुपलब्ध है । तत्त्वार्थश्लोकवार्तिक की रचना तत्त्वार्थसूत्र पर भाष्य के रूप में मीमांसाश्लोकवार्तिक के अनुकरण पर की गई । भट्टाकलङ्क की अष्टशती के गूढ़ रहस्य को समझाने के लिए अष्टसहस्री की रचना की गई। इसके गौरव को आचार्य विद्यानन्द ने स्वयं इन शब्दों में व्यक्त किया है" हजार शास्त्रों के सुनने से क्या लाभ है, केवल इस अष्टसहस्त्री को सुन लीजिए। इतने से ही स्वसिद्धान्त और परसिद्धांत का ज्ञान हो जाएगा ।" युक्त्यनुशासनालङ्कार आचार्य समन्तभद्र के युक्त्यनुशासन की टीका है। आप्तपरीक्षा, प्रमाणपरीक्षा और सत्यशासनपरीक्षा परीक्षान्त ग्रंथ हैं, जो दिङ्नाग की आलंबनपरीक्षा और त्रिकालपरीक्षा, धर्मकीर्ति की संबंधपरीक्षा, धर्मोतर की प्रमाणपरीक्षा व लघुप्रमाणपरीक्षा तथा कल्याणरक्षित की श्रुतिपरीक्षा जैसे परीक्षान्त ग्रंथों की याद दिलाते हैं। विद्यानन्द को परीक्षान्त नाम रखने में इनसे प्रेरणा मिली हो, इसमें आश्चर्य नहीं। पहले शास्त्रार्थों में जो पत्र दिए जाते थे, उनमें क्रियापद गूढ़ रहते थे, जिनका आशय समझना कठिन होता था । उसी के विवेचन के लिए विद्यानन्द ने पत्रपरीक्षा नामक एक छोटे से प्रकरण की रचना की थी। जैन परंपरा में इस विषय की संभवतः यह प्रथम और अंतिम रचना है। श्रीपुरपार्श्वनाथ स्तोत्र की रचना अतिशय क्षेत्र श्रीपुर के पार्श्वनाथ के प्रतिबिम्ब को लक्ष्य में रखकर की गई है। अष्टसहस्री की अंतिम प्रशस्ति में बताया है कि कुमारसेन की युक्तियों के वर्द्धनार्थ ही यह रचना लिखी जा रही है। इससे ध्वनित होता है कि कुमारसेन ने आप्तमीमांसा पर कोई विवृत्ति या विवरण लिखा होगा। जिसका स्पष्टीकरण विद्यानन्द ने किया है । निश्चयतः कुमारसेन इनके पूर्ववर्ती हैं । कुमारसेन का समय ई. सन् ७८३ के पूर्व माना गया है । ५४ अनन्तवीर्य - जैन साहित्य में दो अनन्तवीर्यों का नाम मिलता है । इनमें से एक अनन्तवीर्य ने अकलंक के सिद्धिविनिश्चय पर टीका लिखी है। प्रभाचंद्र ने न्यायकुमुदचन्द्र में इनका स्मरण किया है और प्रमेयरत्नमाला में अनन्तवीर्य ने प्रभाचंद्र का स्मरण किया है। इससे सिद्ध है कि दोनों अनन्तवीर्य भिन्न हैं। उत्तरवर्ती होने से प्रमेयरत्नमाला के रचयिता अनन्तवीर्य को लघु अनन्तवीर्य A नाम से भी कहा जाता है। अपने टिप्पण के प्रारंभ में टिप्पणकार ने इनका लघु अनन्तवीर्य देव के नाम से उल्लेख किया है। इन्होंने माणिक्यनन्दि के परीक्षामुख सूत्रों की संक्षिप्त किन्तु মমई ५७ ম For Private Personal Use Only masarany www.jainelibrary.org

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