Book Title: Prachin Digambaracharya aur unki Sahitya Sadhna
Author(s): Rameshchandra Jain
Publisher: Z_Yatindrasuri_Diksha_Shatabdi_Smarak_Granth_012036.pdf

View full book text
Previous | Next

Page 20
________________ यतीन्द्रसूरि स्मारकग्रन्थ जैन आगम एवं साहित्य उत्कृष्टता प्रदान की है। क्षत्रचूडामणि जैसा सूक्तिकाव्य अद्वितीय है, जिसके प्रायः प्रत्येक पद्य में सूक्ति का प्रयोग किया गया है। पद्मनन्दी - इन्होंने पद्मनन्दिपञ्चविंशतिका के प्रत्येक प्रकरण में अपने नाममात्र का ही निर्देश किया है, इसके अतिरिक्त इन्होंने अपना कोई विशेष परिचय नहीं दिया। इतना अवश्य है कि इन्होंने दो स्थलों पर वीरनन्दी इस नामोल्लेख के साथ अपने गुरु के प्रति कृतज्ञता का भाव दिखलाते हुए अतिशय भक्ति प्रकट की है। इसके अतिरिक्त नामनिर्देश के बिना उन्होंने अनेक स्थानों पर गुरूरूप से उनका स्मरण करते हुए उनके प्रति अत्यधिक श्रद्धा का भाव व्यक्त किया है। श्री पद्मनन्दी मुनि द्वारा विरचित इन कृतियों के पढ़ने से ज्ञात होता है कि वे मुनिधर्म का दृढ़ता से पालन करते थे । वे मूलगुणों के परिपालन में थोड़ी सी भी शिथिलता को नहीं सह सकते थे। उनका दिगंबरत्व में विशेष अनुराग ही नहीं था, बल्कि वे उसे संयम का एक आवश्यक अंग मानते थे । प्रमाद के परिहारार्थ उन्हें एकान्तवास अधिक प्रिय था। वे अध्यात्म के विशेष प्रेमी थे६७। ये विक्रम सं. १०७५ के पश्चात् और १२४० के पूर्व हुए। शाकटायन पाल्यकीर्ति ये पाणिनि से ६०० वर्ष पूर्व हुए प्रसिद्ध वैयाकरण शाकटायन से भिन्न हैं । इन्होंने स्वोपज्ञ अमोघवृत्ति सहित शाकटायन शब्दानुशासन की रचना की है। अमोघवृत्ति के प्रारंभ में में शाकटायन नाम से ही इनका निर्देश किया गया है। शाकटायन का एक अन्य नाम पाल्यकीर्ति भी मिलता है। ये यापनीय संघ के आचार्य थे । वादिराज द्वारा निर्देश होने के कारण इनका समय ई. सन् १०२५ के पूर्व है । इनकी तीन रचनाएँ प्राप्त होती हैं - १. अमोघवृत्तिसहित शाकटायन- शब्दानुशासन । २. स्त्रीमुक्ति ३. केवलिमुक्ति महावीराचार्य - मात्र भारतीय ही नहीं, अपितु विश्व इतिहास में आपकी विशिष्ट कीर्ति आपकी बहुश्रुत कृति गणितसारसंग्रह के कारण है। ज्योतिष के प्रभाव से पूर्णतः मुक्त पाठ्यपुस्तक की शैली में निबद्ध इस कृति का प्रणयन मान्यखेट के शासक राष्ट्रकूट वंशीय नृपतुंग अमोघवर्ष के राज्यकाल में संभवतः उनके ही राज्यक्षेत्र अथवा उसके समीप विहार करने वाले दि. টট Jain Education International जैन आचार्य महावीराचार्य ने ८५० ई. के लगभग किया था। आपके जन्मस्थान जन्मवर्ष दीक्षागुरु, दीक्षावर्ष तथा माता-पिता आदि के संदर्भ में इतिहास पूर्णतः मौन है" । For Private गणितसारसंग्रह गणित की अनेक विशेषताओं को अपने में समाहित किए हुए है। उसका क्षेत्रगणित व्यवहार अनेक विशिष्टताओं से परिपूर्ण है। आपने विविध प्रकार के त्रिभुजों, चतुर्भुजों, वृत्त आदि के क्षेत्रफल ज्ञात करने के साथ ही दीर्घवृत्ति, यवाकार, मुरजाकार, पणवाकार, वज्राकार, एकनिषेध क्षेत्र, उभयनिषेध क्षेत्र, तीन एवं चार संस्पर्शी वृत्तों से आबद्ध क्षेत्र, हस्तदंत क्षेत्र का क्षेत्रफल निकालने के नियम भारतीय गणित में सर्वप्रथम प्रतिपादित किए हैं। दीर्घवृत्त के अतिरिक्त अन्य आकृतियों की तो चर्चा भी सर्वप्रथम आपने ही की । मात्र वृत्त ही नहीं, अपितु गोलीय खण्डों ( नतोदर + उन्नतोदर) के आयतन ज्ञात करने के सूत्र भी उपलब्ध हैं । ६९ मानतुङ्गसूरि - सुप्रसिद्ध भक्तामरस्तोत्र के प्रणेता मानतुङ्गसूरि को कुछ इतिहासज्ञ विद्वानों ने हर्षवर्द्धन के समकालीन बतलाया है। सम्राट् हर्ष का समय सातवीं शताब्दी है, अत: पं. पन्नालाल साहित्याचार्य ने महापुराण की प्रस्तावना (पृ. २२) में आचार्य मानतुङ्ग को ७वीं शताब्दी का लिखा है ६० । भक्तामर स्तोत्र के रचयिता मूलतः ब्राह्मणधर्मानुयायी और सुकवि थे। बाद में अनेक परिवर्तनों के बाद दिगंबर जैन साधु हो गए थे। उन्हीं ने भक्तामर काव्य बनाया है। १ भक्तामर स्तोत्र जैनों में अत्यधिक लोकप्रिय है। अनेक भाई-बहन तो प्रतिदिन भक्तामर का पाठ करके ही आहार ग्रहण करते हैं। आधुनिक हिन्दी में इसके १०० से अधिक पद्यानुवाद हो गए हैं। महासेनाचार्य महासेन वाट - वर्गट य लाट-वागड़ संघ के आचार्य थे। प्रद्युम्नचरित की कारञ्जा भंडार में प्राप्त प्रशस्ति से ज्ञात होता है कि लाट - वर्गट संघ में सिद्धान्तों के पारगामी जयसेन मुनि हुए, उनके शिष्य गुणाकरसेन । इन गुणाकरसेन के शिष्य महासेन सूरि हुए, जो राजा मुञ्ज द्वारा पूजित थे। सिन्धुराज या सिन्धुल के महामात्य पर्पट ने जिनके चरणकमलों की पूजा की थी । इन्हीं महासेन ने प्रद्युम्नचरित काव्य की रचना की और राजा के अनुचर Abbybumbu &? Hvorup brbúð Personal Use Only CG www.jainelibrary.org

Loading...

Page Navigation
1 ... 18 19 20 21 22 23 24 25