Book Title: Prachin Digambaracharya aur unki Sahitya Sadhna
Author(s): Rameshchandra Jain
Publisher: Z_Yatindrasuri_Diksha_Shatabdi_Smarak_Granth_012036.pdf

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Page 19
________________ यतीन्द्रसूरि स्मारकग्रन्थ - जैन आगम एवं साहित्य में कहा है कि अपने गुरु नेमिचन्द्र सिद्धान्त चक्रवर्ती को सम्मत अथवा ग्रन्थकर्ता नेमिचंद्र सिद्धान्तदेव के अभिप्राय का अनुसरण करने वाली कुछ गाथाएँ माधवचन्द्र त्रैविध्य ने भी यहाँ वहाँ रची हैं। माधवचन्द्र भी करणानुयोग के पंडित थे । इनकी गणितशास्त्र में विशेष गति थी। इनके द्वारा सिद्ध गणित को त्रिलोकसार में निबद्ध किया गया है और यह गाथा में प्रयुक्त माधवचंदुद्धरिया पद से जो द्वयर्थक है, स्पष्ट होता है। गोम्मटसार जीवकाण्ड में योगमार्गणाधिकार में इनके मत का निर्देश है। अतः गुरुजनों के साथ शिष्यजन भी इस ग्रन्थरचना-गोष्ठी में सम्मिलित थे । ३ इंद्रनन्दि - ये ९३९ ई. में लिखी गई ज्वालामालिनीकल्प के रचनाकार माने जाते हैं । इनके द्वारा रचित श्रुतावतार ग्रन्थ भी प्राप्त होता है। कनकनन्दि - इनके द्वारा सत्त्वस्थान (विस्तार सत्तरिभङ्गी) की रचना की गई थी। अभयनन्दि - ये विबुधगुणनन्दि के शिष्य और वीरनन्दी के गुरु थे । अजितसेन - नेमिचन्द्र सिद्धान्त चक्रवर्ती के एक गुरु अजितसेन थे। ये सेनसंघ के आर्यसेन के शिष्य थे। ये चामुण्डराय के पारिवारिक गुरु थे। गङ्गराजा मारसिंह द्वितीय ने ९७४ ई. में अजितसेन गुरु के सान्निध्य में सल्लेखना ग्रहण की थी। अजितसेन चामुण्डराय को श्रवणबेलगोला में विन्ध्यगिरि पर बाहुबली प्रतिमा की स्थापना की प्रेरणा दी थी। वे इस प्रतिमा के स्थापनासमारोह के अधिष्ठाता थे। संभवतः नेमिचन्द्र इनके सहायक थे ६४ । वीरनन्दी - वीरनन्दी असाधारण विद्वान् थे, ऐसा उनकी कृति चन्द्रप्रभचरित के अध्ययन एवं अन्य उल्लेखों से ज्ञात होता है। चन्द्रप्रभचरित के क्रियापदों के देखने स्पष्ट है कि वीरनन्दी का व्याकरणशास्त्र पर पूर्ण अधिकार रहा। द्वितीय सर्ग (श्लो. ४४११०) यह सिद्ध करता है कि वीरनन्दी जैन व जैनेतर दर्शनों के अधिकारी विद्वान् थे । तत्त्वोपप्लव दर्शन की समीक्षा के संदर्भ में उन्होंने जो युक्तियाँ दी हैं, वे अष्टसहस्त्री आदि विशिष्ट दार्शनिक ग्रन्थों में भी दृष्टिगोचर नहीं होतीं। अंतिम सर्ग वीरनन्दी की सिद्धान्त मर्मज्ञता को व्यक्त करता है । चन्द्रप्रभचरित के तत्तत्प्रसङ्गों में चर्चित राजनीति, गजवशीकरण और शकुन अपशकुन आदि विषय उनकी बहुज्ञता को प्रमाणित करने में सक्षम हैं ६५ । इनका काल विक्रम की ग्यारहवीं शती का पूर्वार्द्ध सिद्ध होता है। Jain Education International आचार्य नरेन्द्रसेन - धर्मरत्नाकार की प्रशस्ति में धर्मसेन, शान्तिषेण, गोपसेन और भावसेन आचार्यों के नाम क्रम से दिए हैं । जयसेनाचार्य भावसेनाचार्य के शिष्य थे। जयसेनाचार्य ने अपने पूर्ववर्ती आचार्यों का उल्लेख करके धर्मरत्नाकर की प्रशस्ति समाप्त की है। इस प्रशस्ति के आगे नरेन्द्रसेनाचार्य ने अपने पूर्ववर्ती ब्रह्मसेन, वीरसेन तथा गुणसेन इन तीन और आचार्यो का उल्लेख किया है। नरेन्द्रसेन गुणसेन आचार्य के शिष्य हुए हैं। गुणसेन आचार्य के नरेन्द्रसेन के समान गुणसेन, उदयसेन और जयसेन जैसे अन्य तीन शिष्य थे। प्रथम गुणसेन के पट्ट पर ये द्वितीय गुणसेन आरूढ़ होकर आचार्य पद भूषित करने लगे। आचार्य नरेन्द्रसेन की दो रचनाएँ प्राप्त होती हैं -- (१) सिद्धान्तसारसंग्रह और (२) प्रतिष्ठादीपक । सिद्धान्तसारसंग्रह में रत्नत्रय तथा जीवादि सात तत्त्वों का स्वरूप विधिवत् समझाया गया है। प्रतिष्ठासारदीपक में जिनमूर्ति, जिनमंदिर आदि के निर्माणों में तिथि, नक्षत्र, योग आदि का विचार किया गया है। स्थाप्य, स्थापक और स्थापना इन तीन विषयों का इसमें वर्णन है। पञ्चपरमेष्ठी तथा उनके पंचकल्याणक और जो जो पुण्य के हेतुभूत हैं, वे स्थाप्य हैं। यजमान इन्द्र स्थापक हैं। मंत्रों से जो विधि की जाती है, उसे स्थापना कहते हैं। तीर्थंकरों के पंचल्याणक जहाँ हुए हैं, ऐसे स्थान तथा अन्य पवित्रस्थान, नदी तट, पर्वत, ग्राम, नगरादिकों के सुंदर स्थान में जिनमंदिर निर्माण करना चाहिए। ६६ आचार्य नरेन्द्रसेन का काल विक्रम संवत् की १२वीं शती का मध्यभाग सिद्ध होता है। वादीभसिंहसूरि - इनका जन्मनाम ओडयदेव, दीक्षानाम अजितसेन और पाण्डित्योपार्जित उपाधि वादीभसिंह हैं। ये पुष्पसेन मुनि के शिष्य थे। ये तर्क, व्याकरण, छन्द, काव्य, अलंकार और कोश आदि ग्रंथों के मर्मज्ञ थे। इनके वादित्वगुण की समाज में बड़ी प्रसिद्धि थी। इनका काल ८वीं शताब्दी माना जाता है। इन्होंने क्षत्रचूडामणि और गद्यचिन्तामणि नामक दो काव्यग्रंथों का प्रणयन किया। इनमें से प्रथम रचना पद्य में और द्वितीय गद्य में है । श्रवणबेलगोल की मल्लिषेण प्रशस्ति में इनके दो शिष्यों का उल्लेख पाया जाता है -- (१) शान्तिनाथ और (२) पद्मनाभ । संस्कृत-गद्यकारों में जो स्थान बाणभट्ट का है, वही स्थान जैनसंस्कृत - गद्य लेखकों में आचार्य वादीभसिंह का है। उन्होंने गद्यचिन्तामणि काव्य लिखकर संस्कृत और जैन गद्यकाव्य को [ ६० ট For Private Personal Use Only www.jainelibrary.org

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