Book Title: Prachin Digambaracharya aur unki Sahitya Sadhna
Author(s): Rameshchandra Jain
Publisher: Z_Yatindrasuri_Diksha_Shatabdi_Smarak_Granth_012036.pdf
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में जो सात्मीभाव किया तथा आगमसिद्ध अपने मन्तव्यों को जिस तरह दार्शनिकों के सामने रखने योग्य बनाया, वह सब छोटे-छोटे ग्रंथों में विद्यमान उनके असाधारण व्यक्तित्व का तथा न्याय प्रमाण स्थापना युग का द्योतक है ४३ ।
यतीन्द्रसूरि स्मारकग्रन्थ - जैन आगम एवं साहित्य
अकलंक देव का समय ७२०- ७८० सिद्ध होता है" । उनके ग्रंथों में अन्य दर्शनों के आचार्यों के साथ बौद्ध आचार्य धर्मकीर्ति, प्रज्ञाकरगुप्त, धर्माकरदत्त (अर्चट), शांतभद्र, धर्मोत्तर, कर्णकगोमि तथा शांतरक्षित के ग्रंथों का उल्लेख या प्रभाव दृष्टिगोचर होता है। अकलंक जैन-न्याय के प्रतिष्ठाता माने जाते हैं। उनके पश्चात् जो जैन ग्रंथकार हुए, उन्होंने अपनी न्यायविषयक रचनाओं में अकलकंदेव का ही अनुसरण करते हुए जैन-न्याय विषयक साहित्य की श्रीवृद्धि की और जो बातें अकलंक देव ने अपने प्रकरणों में सूत्र रूप में कही थीं, उनका उपपादन तथा विश्लेषण करते हुए दर्शनान्तरों के विविध मन्तव्यों की समीक्षा में बृहत्काय ग्रन्थ रचे, जिससे जैन न्याय रूपी वृक्ष पल्लवित और पुष्पित हुआ। अकलङ्कदेव की रचनाएँ निम्नलिखित हैं१. तत्त्वार्थवार्तिक, २, अष्टशती, ३. लघीयस्त्रय सविवृत्ति, ४. न्याय विनिश्चय, ५. सिद्धिविनश्चय और ६. प्रमाणसंग्रह | वज्रसूरि - ये देवनन्दी या पूज्यपाद के शिष्य द्राविड़ संघ के संस्थापक जान पड़ते हैं। हरिवंशपुराणकार जिनसेन प्रथम ने इनके विचारों को प्रवक्ताओं या गणधर देवों के समान प्रमाणभूत बतलाया है और उनके किसी ऐसे ग्रन्थ की ओर संकेत किया है, जिसमें बंध और मोक्ष तथा उनके हेतुओं का विवेचन किया गया है। दर्शनसार के उल्लेखानुसार ये छठी शती के प्रारंभ के विद्वान् ठहरते हैं ४६।
महासेन - इन्हें जिनसेन प्रथम ने सुलोचनाकथा का कर्ता कहा है ।
शान्त इनका पूरा नाम शान्तिषेण जान पड़ता है । इनकी उत्प्रेक्षा अलंकार से युक्त वक्रोक्तियों की प्रशंसा की गई है। जिनसेन प्रथम ने अपनी गुरुपरंपरा का वर्णन करते हुए जयसेन के पूर्व एक शान्तिषेण नामक आचार्य का नामोल्लेख किया है। बहुत कुछ संभव है कि यह शान्त वही शन्तिषेण हों ४६ । कुमारसेनगुरु - चंद्रोदय ग्रन्थ के रचयिता प्रभाचंद्र के आप थे। आपका निर्मल सुयश समुद्रान्त विचरण करता था। गुरु इनका समय निश्चित नहीं है । चामुण्डरायपुराण के पद्य सं. १५ में
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भी इनका स्मरण किया गया है। डा. ए. एन. उपाध्ये ने इनका परिचय देते हुए जैन-संदेश के शोधाङ्क १२ में लिखा है कि ये मूलगुण्ड नामक स्थान पर आत्मत्याग को स्वीकार करके कोप्पणाद्रि पर ध्यानस्थ हो गए तथा समाधिपूर्वक मरण किया *" । वीरसेन आचार्य ये उस मूलसंघ पञ्चस्तूपान्वय के आचार्य थे, जो सेनसंघ के नाम से लोक में विश्रुत हुआ है। ये आचार्य चंद्रसेन के प्रशिष्य और आर्यनन्दी के शिष्य तथा महापुराण आदि के कर्ता जिनसेन के गुरु थे। ये षट्खण्डागम पर बहत्तर हजार श्लोकप्रमाण धवला टीका तथ. प्राभृत पर बीस हजार श्लोक प्रमाण जयधवला टीका लिखकर दिवङ्गत हो गए। जिनसेन ने इन्हें कवियों का चक्रवर्ती तथा अपने आपके द्वारा परलोक का विजेता कहा है। इनका समय विक्रम की ९ वीं शती का पूर्वार्द्ध है"। गुणभद्राचार्य के उल्लेख से ज्ञात होता है कि वीरसेनाचार्य द्वारा 'सिद्धभूपद्धति' नामक ग्रंथ की रचना की गई थी। जिनसेन प्रथम - हरिवंशपुराण के रचयिता आचार्य जिनसेन पुनाट संघ के थे। ये महापुराणादि के कर्त्ता जिनसेन से भिन्न हैं। इनके गुरु का नाम कीर्तिषेण और दादागुरु का नाम जिनसेन था। महापुराणादि के कर्त्ता जिनसेन के गुरु वीरसेन और दादा आर्यनन्दी थे। पुन्नाट कर्नाटक का प्राचीन नाम है । इसलिए इस देश के मुनिसंघ का नाम पुन्नाट संघ था। जिनसेन का जन्मस्थान, माता-पिता तथा प्रारंभिक जीवन का कुछ भी उल्लेख उपलब्ध नहीं है। जिनसेन बहुश्रुत विद्वान् थे । हरिवंशपुराण पुराण तो है ही, साथ ही इसमें जैन वाङ्मय के विविध विषयों का अच्छा निरूपण किया गया है। इसलिए यह जैन साहित्यका अनुपम ग्रंथ है ५० । श्रीपाल ये वीरसेन स्वामी के शिष्य और जिनसेन के सधर्मा समकालीन विद्वान् हैं। जिनसेन ने जयधवला को इनके द्वारा सम्पादित बतलाया है। इनका समय विक्रम की ९वीं शती है । जयसेन - ये उग्रतपस्वी प्रशांतमूर्ति, शास्त्रज्ञ और पण्डितजनों में अग्रणी थे। हरिवंशपुराण के कर्ता जिनसेन ने अमितसेन के गुरु जयसेन का उल्लेख किया है। इनका समय विक्रम की आठवीं शती है। जयसेन के नाम से एक निमित्तज्ञान संबंधी ग्रंथ भी प्राकृत भाषा में लिखा मिलता है, पर यह निश्चयपूर्वक नहीं कहा जा सकता कि आदिपुराणोल्लिखित जयसेन से वह अभिन्न है५९ ।
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