Book Title: Prachin Digambaracharya aur unki Sahitya Sadhna
Author(s): Rameshchandra Jain
Publisher: Z_Yatindrasuri_Diksha_Shatabdi_Smarak_Granth_012036.pdf

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Page 9
________________ - यतीन्द्रसूरि स्मारक ग्रन्थ - जैन आगम एवं साहित्य - शीतीभूतं जगद्यस्य वाचाऽऽराध्य चतुष्टयम्। यह अनुप्रेक्षा नामक ग्रंथ स्वामी कुमार ने श्रद्धापूर्वक मोक्षमार्ग स पायान्नः शिवकोटिमुनीश्वरः।। जिनवचन की प्रभावना तथा चंचल मन रोकने के लिए बनाया। अर्थात जिनकी वाणी द्वारा चतुष्टयरूप (दर्शन, ज्ञान, चारित्र ये बारह अनप्रेक्षाएं जिनागम के अनुसार कही गई हैं। जो और तप रूप) मोक्षमार्ग की आराधना करके जगत् शीतीभूत हो भव्य जीव इनको पढ़ता, सुनता और भावना करता है, वह शाश्वत रहा है, वे शिवकोटि मुनीश्वर हमारी रक्षा करें। सुख प्राप्त करता है। यह भावनारूप कर्त्तव्य अर्थ का उपदेशक है। इस पद्यमें में जो 'आराध्य चतष्टय' तथा 'शीतीभत' ये अतः भव्य जीवों को इन्हें पढ़ना, सुनना और विचारना चाहिए। दोनों पद शिव आर्य रचित भगवती आराधना की ही सूचना कुमारकाल में दीक्षा ग्रहण करने वाले वासुपूज्यजिन, करते प्रतीत होते हैं, क्योंकि उसी में चार आराधनाओं का कथन मल्लिजिन, नेमिनाथजिन. पार्श्वनाथजिन एवं वर्द्धमान इन पांचों बाल यतियों का मैं सदैव स्तवन करता हूँ। भगवती-आराधना विक्रम की प्रारंभिक शताब्दी के उक्त प्रशस्ति से स्पष्ट है कि ग्रंथ के लेखक स्वामिकुमार आसपास की रचना होनी चाहिए। अतः उसे कुन्दकुन्द की रचनाओं हैं तथा ग्रंथ का नाम वारस अणुवेक्खा है। भट्टारक शुभचन्द्र ने के समकालीन माना जा सकता है। इस पर संवत् १६१३ (ई. सन् १५५६) में संस्कृतटीका लिखी भगवती आराधना में आराधना का वर्णन है। दर्शन, ज्ञान, है। इस टीका में अनेक स्थानों पर ग्रंथ का नाम कार्तिकेयानुप्रेक्षा चारित्र और तप ये चार आराधनाएँ हैं। इनके प्रति आदरभाव दिया गया है और ग्रंथकार का नाम कार्तिकेय मुनि प्रकट किया व्यक्त करने के लिए भगवती विशेषण लगाया गया है। दर्शन. गया है। संभवतः कार्तिकेय शब्द कुमार या स्वामी कमार के ज्ञान, चारित्र और तप का वर्णन जिनागम में अन्यत्र भी है. किन्त पर्यायवाची के रूप में दिया गया है। वहाँ उन्हें आराधना शब्द से नहीं कहा गया है। इस ग्रंथ में मुख्य वारस अणुवेक्खा में कुल ४९६ गाथाएँ हैं। इनमें बारह रूप से मरणसमाधि का कथन है। मरते समय की आराधना ही अनप्रेक्षाओं का विस्तारपूर्वक वर्णन किया गया है। आचार्य उसी के लिए जीवनभर आराधना की जाती जगलकिशोर मख्तार ने वारस अणवेक्खा के समय के विषय में है। उस समय विराधना करने पर जीवन भर की आराधना निष्फल लिखा है -"मेरी समझ यह ग्रंथ उमास्वामि के तत्त्वार्थसत्र से हो जाती है और उस समय की आराधना से जीवनभर की आराधना अधिक बाद का नहीं, उसके निकटवर्ती किसी समय का होना सफल हो जाती है। अत: जो मरते समय आराधक होता है, यथार्थ चाहिए।" इस प्रकार स्वामी कुमार का समय विक्रम की दूसरी में उसी के सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान, सम्यक्चारित्र और सम्यक् तीसरी शती होना चाहिए। तप की साधना को आराधना शब्द से कहा जाता है। गृद्धपिच्छाचार्य कुमार या स्वामी कुमार अथवा कार्तिकेय आचार्य वीरसेन (जिन्होंने शक सं. ७३८ में धवला टीका ऐसा माना जाता है कि स्वामिकार्तिकेयानुप्रेक्षा के कर्ता समाप्त की थी) ने धवला टीका में तत्त्वार्थसूत्र के कर्ता के रूप कार्तिकेय या स्वामी कार्तिकेय हैं। ग्रंथ के अंत में जो प्रशस्ति में गृद्धपिच्छ आचार्य का उल्लेख किया है-- गाथाएँ दी गई हैं, वे निम्न प्रकार हैं-- तहगिद्धपिंछाइरियप्पयासिदतच्चन्यसते विवर्तमापरिणामक्रिया जिणवयणभावणटुं सामिकुमारेण परमसद्धाए। परत्वापरत्वे च कालस्य इदि दव्वकालो परूविदो। रइया अणुवे हाओ चंचलमणरुंभणटुंच।। वारस अणुवेक्खाओ भणियाहु जिणागमाणुसारेण। आचार्य विद्यानन्द ने श्लोकवार्तिक में आचार्य गृद्धपिच्छ जो पढइसुणइ भावइ सो पावइ सासयं सोक्खं। को ही तत्त्वार्थसूत्र का कर्ता माना है - तिहुयणपहाणसामि, कुमारकालेण तवियतवयरणं। 'गृहद्धपिच्छाचार्यपर्यन्तमुनिसूत्रेण' वसुपुज्जसुयं मल्लि चरमतियं संथुवे णिच्चं। Jain Education International For Private & Personal Use Only - www.jainelibrary.org

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