Book Title: Prachin Digambaracharya aur unki Sahitya Sadhna
Author(s): Rameshchandra Jain
Publisher: Z_Yatindrasuri_Diksha_Shatabdi_Smarak_Granth_012036.pdf

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Page 12
________________ यतीन्द्रसूरि स्मारक ग्रन्थ जैनेन्द्र-व्याकरण में, गुणे श्रीदत्तस्य स्त्रियाम्, (१.४.३४) सूत्र में श्रीदत्त का उल्लेख किया है। इनका समय वि.सं. की ३-४ शती होगा। इनके 'जल्पनिर्णय' नाम के एक ग्रंथ का उल्लेख मिलता है २१ । यशोभद्र - प्रखर तार्किक के रूप में जिनसेन ने इनका स्मरण किया है २२। इनके सभा में पहुँचते ही वादियों का गर्व खर्व हो जाता है। जैनेन्द्र व्याकरण में क्व वृषिमृजां यशोभद्रस्य (२.१.९९ ) सूत्र आया है। अतः जिनसेन द्वारा उल्लिखित यशोभद्र और देवनन्दी के जैनेन्द्र करण में निर्दिष्ट यशोभद्र एक ही हैं तो इनका समय विक्रम संवत् की छठी शताब्दी के पूर्व होना चाहिए २३ । आचार्य पूज्यपाद भारतीय परंपरा में जो अपने समय के विख्यात दार्शनिक, श्रेष्ठ वैयाकरण, लब्धप्रतिष्ठ तत्त्वदृष्टा शास्त्रकार हुए हैं, उनमें सारस्वताचार्य श्री पूज्यपाद स्वामी अपरनाम देवनन्दि, जिनेन्द्रबुद्धि, यशः कीर्ति का नाम प्रमुख रूप से लिया जाता है। इन्हें विद्वत्ता और प्रतिभा दोनों का समान रूप से वरदान प्राप्त था । अपने अतलस्पर्श ज्ञानगांभीर्य की अपूर्वता से वह बहुश्रुत की परिधि को पारकर सर्वश्रुत हो गए थे। वे सच्चे अर्थों में स्वपर हित पुण्यात्मा साधु थे और भव्यात्माओं के लिए तारणतरण जहाज थे। जैन परंपरा में आचार्य समन्तभद्र और सिद्धसेन की कोटि के सर्वश्रेष्ठ विद्वान् थे। इन्होंने अपने पीछे जो साहित्य छोड़ा है, उसका प्रभाव दिगंबर और श्वेताम्बर दोनों परंपराओं में समान रूप से दिखाई देता है। यही कारण है कि उत्तरवर्ती प्रायः अधिकतर साहित्यकारों व इतिहासमर्मज्ञों ने इनकी महत्ता, विद्वत्ता और बहुज्ञता स्वीकार करते हुए इनके चरणों में श्रद्धा के सुमन अर्पित किए हैं। आदिपुराण के कर्त्ता आचार्य जिनसेन इन्हें कवियों में तीर्थंकर मानते हुए इनकी स्तुति में कहते हैं कवीनां तीर्थकृद्देवः किंतरां तत्र वर्ण्यते । विदुषां वाङ्मलध्वंसि तीर्थं यस्य वचोमयम् ॥ 1 / 52 शिलालेखों तथा दूसरे प्रमाणों से विदित होता है कि इनका गुरु के द्वारा दिया हुआ दीक्षानाम देवनन्दि था, बुद्धि की प्रखरता के कारण इन्हें जिनेन्द्रबुद्धि कहते थे और देवों के द्वारा इनके चरणयुगल पूजे गए थे, इसलिए वे पूज्यपाद इस नाम से भी लोक में प्रख्यात थे। इस अर्थ को व्यक्त करने वाले उद्धरण ये हैं जैन आगम एवं साहित्य प्रागल्भ्यधारी गुरुणा किल देवनन्दी बुद्ध्या पुनर्विपुलया से जिनेन्द्र बुद्धिः । श्री पूज्यपाद इति चैष बुधैः प्रचख्ये सत्पूजितः पदयुगे वनदेवताभिः । ' * इन शिलालेखों के अतिरिक्त अन्यत्र " भी पूज्यपाद का अन्य नामों से पुण्यस्मरण किया गया है- Jain Education International यशः कीर्तियशोनन्दी देवनन्दि महामतिः । श्री पूज्यपादापराख्यो यः स गुणनन्दिगुणाकरः ॥ श्री वादिराज कवि ने श्री पूज्यपाद देव का स्मरण करते हुए लिखा है- अचिन्त्यमहिमादेवः सोऽभिवन्द्योहितैषिणा । शब्दाश्च येन सिद्ध्यन्ते साधुत्वं प्रतिलम्भितः ॥ Gal ५३ इस प्रकार विदित्त होता है कि इनका नाम देव भी था। यह देवनन्दि का संक्षिप्त रूप ज्ञात होता है। कवि, वैयाकरण एवं दार्शनिक इन तीनों व्यक्तित्वों का आचार्य पूज्यपाद देवनन्दि में अद्भुत समवाय था। कर्नाटक देश के कोले नामक ग्राम के माधवभट्ट नामक ब्राह्मण और धीदेवी ब्राह्मणी से पूज्यपाद का जन्म हुआ। ज्योतिषियों ने बालक को त्रिलोकपूज्य बतलाया । इस कारण उनका नाम पूज्यपाद रखा गया । पूज्यपाद के पिता ने अपनी पत्नी के आग्रह से जैनधर्म स्वीकार किया था। उन्होंने बचपन में ही एक बगीचे में एक साँप के मुँह में फँसे हुए मेंढक को तड़पता देख वैराग्य से ओतप्रोत होकर मुनिदीक्षा ले ली थी। उन्होंने अपने जीवनकाल गगनगामी लेप के प्रभाव से कई बार विदेह क्षेत्र की यात्रा की थी । विदेह क्षेत्र में जाकर भगवान सीमंधर की दिव्यध्वनि सुनकर उन्होंने अपना मानवजीवन पवित्र किया था। उनको तप के प्रभाव से औषधि व चारण ऋद्धि प्राप्त थी । श्रवणबेलगोल के एक शिलालेख के आधार से यह भी कहा जा सकता है कि जिस जल से उनके चरण धोए जाते थे, उनके स्पर्श से लोहा भी सोना बन जाता था। उनके चरण-स्पर्श से पवित्र हुई धूलि में पत्थर को सोना बनाने की क्षमता थी । २६ पूज्यपाद मुनि बहुत समय तक योगाभ्यास करते रहे। फिर एक देवविमान में बैठकर उन्होंने अनेक तीर्थों की यात्रा की। मार्ग में एक जगह उनकी दृष्टि तिमिराच्छन्न हो गई थी, जिसे उन्होंने शान्त्यष्टक का निर्माण कर दूर कर दिया। शांतिः शांति जिनेन्द्र शान्तमनसा त्वत्पादपद्माश्रयात्। सम्प्राप्ताः पृथिवीतलेषु बहवः शान्त्यर्थिनः प्राणिनः ॥ कासायान्मम शाक्तिकस्य च विभो दृष्टिं प्रसन्नां कुरु । For Private Personal Use Only www.jainelibrary.org

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