Book Title: Prachin Digambaracharya aur unki Sahitya Sadhna Author(s): Rameshchandra Jain Publisher: Z_Yatindrasuri_Diksha_Shatabdi_Smarak_Granth_012036.pdf View full book textPage 3
________________ - यतीन्द्रसूरिस्मारक ग्रन्थ - जैन आगम एवं साहित्य - ऐसा समझकर भी भूतबलि आचार्य ने द्रव्यप्ररूपणा आदि अपेक्षा काल, ९. नाना जीवों की अपेक्षा अन्तर, १०. अधिकारों को बताया। इस तरह पूर्व के सूत्रों सहित छह हजार भागाभागानुगम और ११. अल्पबहुत्वानुगम। इन अनुयोग-द्वारों श्लोक प्रमाण में उन्होंने पाँच खण्ड बनाए और तीस हजार के प्रारम्भ में भूमिका के रूप में बंध के सत्त्व की प्ररूपणा की प्रमाण सूत्रों में महाबंध नाम का छठा खण्ड बनाया। गई है और अंत में सभी अनुयोग-द्वारों को चूलिका रूप से छह खण्डों के नाम इस प्रकार हैं - जीव स्थान, क्षद्रक, अल्पबहुत्व महादण्डक दिया गया है। बंध, बन्धस्वामित्व, वेदनाखण्ड, वर्गणाखण्ड और महाबन्ध। ३. बन्धस्वामित्वविचय भूतबलि आचार्य ने इस षट्खण्डागम सूत्रों को पुस्तकबद्ध किया इस खण्ड में कर्मों की विभिन्न प्रकृतियों का बंध करने और ज्येष्ठ सुदी पंचमी के दिन चतुर्विधसंघ सहित कृतिकर्मपूर्वक वाले स्वामियोंका विचय अर्थात् विचार किया गया है। महापूजा की। इसी दिन से इस पंचमी का 'श्रुतपंचमी' नाम प्रसिद्ध हो गया और तब से लेकर लोग श्रुतपंचमी के दिन श्रुत ४ वेदनाखण्ड की पूजा करते हैं। पुनः भूतबलि ने जिनपालित को षटखण्डागम इसमें छह अनुयोग-द्वारों में वेदना नामक दूसरे अनुयोग ग्रंथ देकर पुष्पदन्त मुनि के पास भेजा। उन्होंने अपने चिंतित का विस्तार से वर्णन किया गया है। कार्य को पूरा हुआ देकर महान् हर्ष व्यक्त किया और श्रुत के अनुराग से चातुर्वर्ण संघ के मध्य महापूजा की। ५. वर्गणाखण्ड षट्खण्डागम यथानाम छह खण्डों की रचना है। इन छह महाकर्मप्रकृति प्राभृत के २४ अनुयोग द्वारों में स्पर्श, कर्म खण्डों का विशेष परिचय इस प्रकार है - और प्रकृति ये तीन अनुयोग द्वार स्वतंत्र हैं और भूतबलि आचार्य ने इनका स्वतंत्र रूप से ही वर्णन किया है, तथापि छठे बंधन १. जीव स्थान अनुयोग द्वार के अन्तर्गत बंधनीय का अवलम्बन लेकर पुद्गल इस खण्ड में गुणस्थान और मार्गणास्थान का आश्रय वर्गणाओं का विस्तार से वर्णन किया गया है और आगे के लेकर सत्, संख्या, क्षेत्र, स्पर्शन, काल, अन्तर, भाव और अनयोग द्वारों का वर्णन आचार्य भूतबलि ने नहीं किया है, अल्पबहुत्व इन आठ अनुयोग-द्वारों से तथा प्रकृतिसमुत्कीर्तना, इसलिए स्पर्श अनुयोग द्वार से लेकर बंधन अनुयोग द्वार तक का स्थान समुत्कीर्तना, तीन महादण्डक, जघन्य स्थिति, उत्कृष्ट स्थिति, वर्णित अंश वर्गणाखण्ड के नाम से प्रसिद्ध हआ। सम्यक्त्वोत्पत्ति और गति-अगति इन नौ चूलिकाओं के द्वारा जीव की विविध अवस्थाओं का वर्णन किया गया है। राग-द्वेष ६. महाबंध और मिथ्यात्व भाव को मोह कहते हैं। मन-वचन. काय के । षट्खण्डागम के दूसरे खण्ड में कर्मबंध का संक्षेप में निमित्त से आत्मप्रदेशों के चंचल होने को योग कहते हैं। इन्हीं वर्णन किया गया है। अत: उसका नाम खुद्दाबंध या क्षुद्रबंध मोह और योग के दर्शन, ज्ञान, चारित्र रूप, आत्म गुणों की प्रसिद्ध हुआ, किन्तु छठे खण्ड में बंध की प्रकृति, स्थिति, अनुभाग विकास रूप अवस्थाओं को गण-स्थान कहते हैं। और प्रदेश रूप चारों प्रकार के बंधों का अनेक अनुयोग द्वारों से विस्तारपूर्वक विवेचन किया है, इसलिए इसका नाम महाबंध २. खुद्दाबन्ध रखा गया। इसमें कर्मबन्धक के रूप में जीव की प्ररूपणा इन ग्यारह अनुयोग-द्वारों द्वारा की गई है - १. एक जीव की अपेक्षा आचार्य आर्यमंक्षु और नागहस्ति स्वामित्व. २. एक जीव की अपेक्षा काल, ३. एक जीव की ये दोनों आचार्य दिगम्बर और श्वेताम्बर दोनों परम्पराओं अपेक्षा अन्तर, ४. नाना जीवों की अपेक्षा भंगविचय, ५. द्रव्य में प्रतिष्ठित हैं। धवला टीका में इन दोनों को महाश्रमण और प्रमाणानुगम, ६. क्षेत्रानुगम, ७. स्पर्शानुगम, ८. नाना जीवों की महावाचक लिखा गया है। जयधवला में आर्यमंक्षु और नागहस्ति tarideuonitorinhivanivonitoriwordrowdivorooriroin ४४ Hardindidrordoriwordwordwordroomotoroordarodaiwand Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.orgPage Navigation
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