Book Title: Paumchariu Part 1
Author(s): Swayambhudev, H C Bhayani
Publisher: ZZZ Unknown

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Page 341
________________ १२८ पउमचरिउ [१६. सोलहमो संधि ] reकुव्वरे धरियऍ णिय मन्तिहिं सहियउ * जे गूढपुरिस पट्टविय तेण परिपुच्छिय 'लइ 'अक्खहाँ देवत्ति किं वलु हउ पाइक -लोड तं सुर्णेवि दणु-गुण- पेरिएहिँ 'परमेसर रणे रावणु अचिन्तु ," चउ-विज्ज-कुसल छग्गुण- णिवासु सत्तविह-वसण-विरहिय-सरीरु अरिवर-छबग्ग-विणासयालु Jain Education International aar साह [क० १, १२ विजऍ घुट्टे वहरि तणऍ । 'इन्दु परिहिउ मन्तणऍ ॥ [१] ते आय पडीवा तक्खणेण ॥ १ केहर पहु केहिय तासु सत्ति ॥ २ किं वसणु कवणु गुणु को विणो ॥ ३ सहसक्खहों अक्विड हेरिएहिं ॥ ४ उच्छाह-मन्त-पहु-सत्ति-वन्तु ॥ ५ छव्विह वलु सत्त - पैइ-पयासु ॥ ६ वहु-बुद्धि-सत्ति-खम-काल- धीरु ॥ ७ अट्ठारहविह- तित्थाणुपालु ॥ ८ ॥ घत्ता ॥ 'Rog सामि - सम्माणियउ । को वि भी अवमाणियउ ॥ ९ उ कुद्धर लुद्धउ 1. 1 Ps माणें मलिए विजए 2 P जणवए कहिउं इंदु, 9 जणवइ कहियउ इंदु . 3A °यहूं. 4 A 'लद्धि° 5Ps कालु. 6 Ps सयल पसाहणे सध्वु. 7 A वीरु. * Between the first and the second Kadavaka all the Mss. read the following Sanskrit passage which is obviously a sort of commentary on the political terms occurring in the 1. Kaḍavaka. In all probability it was not a part of the original text, but got incorporated in the body of the text from its natural place as a marginal gloss. The slight incorrectness of the Sanskrit of the passage is ignored: का तिस्रः शक्तयः । प्रभुशक्तिः । उत्साहशक्तिः । मन्त्रशक्तिश्चेति ॥ का चतस्रो विद्याः । आन्वीक्षिकी यी वार्त्ता दण्डनीतिश्चेति । साङ्ख्यो योगो लोकायतं चान्वीक्षिकी । सामयजुर्वेदात्रयी । कृषिः पाशुपाल्यं वाणिज्यं वार्ता च । आन्वीक्षिकी- त्रयी- वार्तानां योगक्षेमसाधनो दण्डस्तस्व नीतिर्दण्डनीतिरिति ॥ षड्गुणाः के ते । संधि-विग्रह- यानासन-संश्रय- द्वैधीभावाः । किं तद् षड्विधं बलम् । मूलबलम् । भृत्यवलम् । श्रेणीबलम् । मित्रबलम् | अमित्रबलम् । आटविकवलं श्वेति ॥ का सप्त प्रकृतयः । स्वाम्यमात्य- जनपद-दुर्ग-कोश - बल ( v. 1. दण्ड ) - मित्राणि ( gloss on स्वामि- 'स्वाम्यमात्यौ च राष्ट्रं च दुर्ग कोशो बलं सुहृत्' इत्यमरः ) ॥ कानि सप्त व्यसनानि । पानम् । द्यूतम् । स्त्री । मृगया ( gloss पापर्द्धिः ) । पारुष्यम् । दण्डपारुष्यम् | अर्थदूषणं (gloss on पानम् —' द्यूतं मद्यं पिशितं च वेश्या पापर्द्धि-चौर्यं परदारसेवा' इत्यादि) । तत्रादौ चत्वारि कामजानि, त्रीणि कोपजानि ॥ कोऽरिषङ्घर्गः । काम-क्रोध-लोभ मान-मद-हर्षाः ॥ कान्यदश तीर्थानि । मन्त्रि-पुरोहित-सेनापति- युवराज-दौवारिकान्त वैशिक- प्रशास्तु समाहर्तृ संवि श्रातृ-प्रदेष्टृ नायक - पौरव्यावहारिक कर्मान्त्रिक-मन्त्रिपरिषद्-दण्डदुर्गान्तपालाटचिकाः ॥ (? not in A ) [ अ ]ष्टाङ्गानि ते ॥ छ ॥ पसाहणि [१] १ यूयं कथयत. २ शीघ्रम् ३ प्रकृति. For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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