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नियमसार
व्यवहारकालका वर्णन
समयावलिभेदेण दु, दुवियप्पं अहव होइ तिवियप्पं । तोदो संखेज्जावलिहदसंठाणप्पमाणं तु । । ३१ ।।
समय और आवलिके भेदसे व्यवहार कालके दो भेद हैं अथवा अतीत, वर्तमान और भविष्यत्के भेदसे तीन भेद हैं। उनमें काल, आवलि तथा हतसंस्थान अर्थात् संस्थानसे रहित सिद्धोंका जितना प्रमाण है उतना है।
भावार्थ -- व्यवहारकालसे समय और आवलिकी अपेक्षा दो भेद हैं। इनमें समय काल द्रव्यकी सबसे लघु पर्याय है। असंख्यात समयोंकी एक आवलि होती है। यहाँ आवलि, निमेष, काष्ठा, कला, नाड़ी, दिन रात आदिका उपलक्षण है। दूसरी विधिसे कालके भूत, वर्तमान और भविष्यत्की अपेक्षा तीन भेद हैं। इनमें भूतकाल संख्यात आवलि तथा सिद्धोंके बराबर है' ।। ३१ ।।
भविष्यत् तथा वर्तमान कालका लक्षण और निश्चयकालका स्वरूप जीवा दुग्गलादोऽतगुणा भावि' संपदा समया । लोयायासे संति य, परमट्ठो सो हवे कालो ।। ३२ ।।
भावी अर्थात् भविष्यत् काल जीव तथा पुद्गलसे अनंतगुणा है। संप्रति अर्थात् वर्तमान काल समयमात्र है। लोकाकाशके प्रदेशोंपर जो कालाणु हैं वह परमार्थ अर्थात् निश्चय काल है ।। ३२ ।। जीवादि द्रव्योंके परिवर्तनका कारण तथा धर्मादि चार द्रव्योंकी स्वभाव गुणपर्यायरूपताका वर्णन
जीवादीदव्वाणं, परिवट्टणकारणं हवे कालो ।
धम्मादिचउण्णाणं, सहावगुणपज्जया होंति । । ३३॥
जीवादि द्रव्यों के परिवर्तनका कारण काल है। धर्मादिक चार द्रव्योंके स्वभाव गुण पर्यायें होती हैं।
१. यहाँ 'तीदो संखेज्जावलिहदसंठाणप्पमाणं तु' इस पाठके बदले गोम्मटसार जीवकांड में 'तीदो संखेज्जावलिहदसिद्धाणं पमाणं तु' ऐसा पाठ है जिसका अर्थ होता है - संख्यात आवलिसे गुणित सिद्धोंका जितना प्रमाण है उतना अतीत क है।
२. मुद्रित प्रतियोंमें 'चावि' पाठ है जोकि त्रुटिपूर्ण जान पड़ता है। वर्तमान और भविष्यत् कालका लक्षण जीवकांडमें भी इस प्रकार बताया है -.
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समओ दुवट्टमाणो जीवादो सव्वपुग्गलातो वि ।
भावी अनंतगुणिदो इदि ववहारो हवे कालो ।। ५७८ ।।
वर्तमान काल समयमात्र है और भावीकाल जीवों तथा समस्त पुद्गल द्रव्योंसे अनंतगुणा है। इस प्रकार व्यवहार कालका वर्णन है।