Book Title: Niyam Sara
Author(s):
Publisher: ZZZ Unknown
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नयमसार
२३९
प्रकृति, स्थिति, अनुभाग और प्रदेश बंधोंसे रहित जो आत्मा है वही मैं हूँ इस प्रकार चिंतन करता हुआ ज्ञानी जीव उसी आत्मामें स्थिरभावको करता है।।९८ ।।
ममत्तिं परिवज्जामि, णिम्ममत्तिमुवट्टिदो।
आलंबणं च मे आदा, अवसेसं च वोसरे।।९९।। मैं ममत्वको छोड़ता हूँ और निर्ममत्वमें स्थित होता हूँ, मेरा आलंबन आत्मा है और शेष सबका परित्याग करता हूँ।।९९।।
आदा खु मज्झ णाणे, आदा मे दंसणे चरित्ते य।
आदा पच्चक्खाणे, आदा मे संवरे जोगे।।१००।। निश्चयसे मेर। आत्मा ही ज्ञानमें है, मेरा आत्माही दर्शन और चारित्रमें है, आत्मा ही प्रत्याख्यानमें है और आत्मा ही संवर तथा योग -- शुद्धोपयोगमें है।
___ भावार्थ -- गुण-गुणीमें अभेद कर आत्माहीको ज्ञान, दर्शन, चारित्र, प्रत्याख्यान, संवर तथा शुद्धोपयोगरूप कहा है।।१०।। ।
जीव अकेला ही जन्म मरण करता है एगो य मरदि जीवो, एगो य जीवदि सयं।
एगस्स जादि मरण, एगो सिज्झदि णीरयो।।१०१।। यह जीव अकेला ही मरता है और अकेला ही स्वयं जन्म लेता है। एकका मरण होता है और एक ही कर्मरूपी रजसे रहित होता हुआ सिद्ध होता है।।१०१ ।।
ज्ञानी जीवकी भावना एको मे सासदो अप्पा, णाणदंसणलक्खणो।
सेसा मे बाहिरा भावा, सव्वे संजोगलक्खणा।।१०२।। ज्ञान दर्शनवाला, शाश्वत एक आत्मा ही मेरा है। संयोगलक्षणवाले शेष समस्त भाव मुझसे बाह्य हैं।।१०२ ।।
आत्मगत दोषोंसे छूटने का उपाय जं किंचि मे दच्चरितं, सव्वं तिविहेण वोसरे।
सामाइयं तु तिविहं, करेमि सव्वं णिरायारं ।।१०३।। मेरा जो कुछ भी दुश्चारित्र -- अन्यथा प्रवर्तन है उस सबको त्रिविध -- मन वचन कायसे छोड़ता हूँ और जो त्रिविध (सामायिक, छेदोपस्थापना, परिहारविशुद्धि के भेदसे तीन प्रकारका) चारित्र है उस सबको निराकार -- निर्विकल्प करता हूँ।।१०३।।

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