Book Title: Niyam Sara
Author(s): 
Publisher: ZZZ Unknown

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Page 34
________________ २४८ कुदकुद-भारती आवश्यक युक्ति शब्दका संपूर्ण निरुक्ति अर्थ है। भावार्थ -- शब्दसे निकलनेवाले अर्थको निरुक्ति कहते हैं। यहाँ आवश्यक युक्ति शब्द का ऐसा ही अर्थ बतलाया गया है।।१४२।। वट्टदि जो सो समणो, अण्णवसो होदि असुहभावेण। तम्हा तस्स दु कम्मं, आवस्सयलक्खणं ण हवे।।१४३।। जो साधु अशुभ भावसे प्रवृत्ति करता है वह अन्य वश है इसलिए उसका कार्य आवश्यक नामसे युक्त नहीं है। भावार्थ -- अवश साधुका कार्य आवश्यक है, अन्यवश साधुका कार्य आवश्यक नहीं है।।१४३ ।। ___ जो चरदि संजदो खलु, सुहभावे सो हवेइ अण्णवसो। तम्हा तस्स दु कम्मं, आवासयलक्खणं ण हवे।।१४४।। जो साधु निश्चयसे शुभ भावमें प्रवृत्ति करता है वह अन्यवश है इसलिए उसका कर्म आवश्यक नामवाला नहीं है। ___ भावार्थ -- एकसौ तैंतालीस तथा एकसौ चवालीसवीं गाथामें कहा गया है कि जो साधु शुभ और अशुभ भावोंमें प्रवृत्ति करता है वह अवश नहीं है, किंतु अन्यवश है। इसलिए उसका जो कर्म है वह आवश्य अथवा आवश्यक नहीं कहला सकता है।।१४४ ।। दव्वगुणपज्जयाणं, चित्तं जो कुणइ सो वि अण्णवसो। मोहंधयारववगयसमणा कहयंति एरिसयं ।।१४५।। जो साधु द्रव्य, गुण और पर्यायोंके मध्यमें अपना चित्त लगाता है अर्थात् उनके विकल्पमें पड़ता है वह भी अन्यवश है ऐसा मोहरूपी अंधकारसे रहित मुनि कहते हैं।।१४५।। आत्मवश कौन है? परिचत्ता परभावं, अप्पाणं झादि णिम्मलसहावं । अप्पवसं सो होदि हु, तस्स दु कम्मं भणंति आवासं।।१४६।। जो परपदार्थको छोड़कर निर्मल स्वभाववाले आत्माका ध्यान करता है वश आत्मवश है। निश्चयसे उसके कर्मको आवश्यक कर्म कहते हैं।।१४६।।। शुद्ध निश्चय आवश्यक प्राप्तिका उपाय आवासं जइ इच्छसि, अप्पसहावेसु कुणदि थिरभावं। तेण दु सामण्णगुणं, संपुण्णं होदि जीवस्स।।१४७।। यदि तू आवश्यककी इच्छा करता है तो आत्मस्वभावमें अत्यंत स्थिर भावको कर। उरः

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