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पुष्प-सुगन्धी से आतम ने, शील-स्वभाव नशाया है | मन्मथ-बाणों से बिंध करके, चहुँ-गति दुःख उपजाया है || स्थिरता निज में पाने को, श्री देव-शास्त्र-गुरु को ध्याऊँ | विद्यमान श्री बीस तीर्थंकर, सिद्ध-प्रभू के गुण गाऊँ ||
ओं ह्रीं श्रीदेव-शास्त्र-गुरुभ्यः श्रीविद्यमानविंशति-तीर्थंकरेभ्यः श्रीअनंतानंत सिद्धपरमेष्ठिभ्य:कामबाण-विध्वंसनाय पुष्पं निर्वपामीति स्वाहा।४।
षट् रस-मिश्रित भोजन से, ये भूख न मेरी शांत हुई | आतमरस अनुपम चखने से, इन्द्रिय-मन-इच्छा शमन हुई || सर्वथा भूख के मेटन को, श्री देव-शास्त्र-गुरु को ध्याऊँ | विद्यमान श्री बीस तीर्थंकर, सिद्ध-प्रभू के गुण गाऊँ ||
ओं ह्रीं श्रीदेव-शास्त्र-गुरुभ्य: श्रीविद्यमानविंशति-तीर्थंकरेभ्यः श्रीअनंतानंत सिद्धपरमेष्ठिभ्यःक्षुधारोग-विनाशनाय नैवेद्यं निर्वपामीति स्वाहा।५।
जड़ दीप विनश्वर को अब तक, समझा था मैंने उजियारा |निज-गुण दरशायक ज्ञान-दीप से, मिटा मोह का अंधियारा || ये दीप समर्पित करके मैं, श्री देव-शास्त्र-गुरु को ध्याऊँ | विद्यमान श्री बीस तीर्थंकर, सिद्ध-प्रभू के गुण गाऊँ ||
ओं ह्रीं श्रीदेव-शास्त्र-गुरुभ्यः श्रीविद्यमानविंशति-तीर्थंकरेभ्यः श्रीअनंतानंत सिद्धपरमेष्ठिभ्य:मोहांधकार-विनाशनाय दीपं निर्वपामीति स्वाहा।६।
ये धूप अनल में खेने से, कर्मों को नहीं जलायेगी | निज में निज की शक्ति-ज्वाला, जो राग-द्वेष नशायेगी || उस शक्ति-दहन प्रगटाने को, श्री देव-शास्त्र-गुरु को ध्याऊँ | विद्यमान श्री बीस तीर्थंकर, सिद्ध-प्रभू के गुण गाऊँ ||
ओं ह्रीं श्रीदेव-शास्त्र-गुरुभ्यः श्रीविद्यमानविंशति-तीर्थंकरेभ्यः श्रीअनंतानंत सिद्धपरमेष्ठिभ्य:अष्टकर्म-दहनाय धूपं निर्वपामीति स्वाहा।७।
पिस्ता बदाम श्रीफल लवंग, चरणन तुम ढिंग मैं ले आया |
आतमरस-भीने निजगुण-फल, मम मन अब उनमें ललचाया || अब मोक्ष महाफल पाने को, श्री देव-शास्त्र-गुरु को ध्याऊँ | विद्यमान श्री बीस तीर्थंकर, सिद्ध-प्रभू के गुण गाऊँ ||
ओं ह्रीं श्रीदेव-शास्त्र-गुरुभ्यः श्रीविद्यमानविंशति-तीर्थंकरेभ्यः श्रीअनंतानंत सिद्धपरमेष्ठिभ्य:मोक्षफल-प्राप्तये फलं निर्वपामीति स्वाहा।८।
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