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यों तो ऋतुपति ऋतु-फल से, उपवन को भर जाता है |
पर अल्प-अवधि का ही झोंका, उनको निष्फल कर जाता है || दो सरस-भक्ति का फल प्रभुवर ! जीवन - तरु तभी सफल होगा | सहजानंद-सुख से भरा हुआ, इस जीवन का प्रतिफल होगा || ओं ह्रीं श्रीपार्श्वनाथजिनेन्द्राय मोक्षफल प्राप्तये फलं निर्वपामीति स्वाहा | ८ |
पथ की प्रत्येक विषमता को, मैं समता से स्वीकार करूँ | जीवन - विकास के प्रिय पथ की, बाधाओं का परिहार करूँ || मैं अष्ट-कर्म-आवरणों का, प्रभुवर ! आतंक हटाने को | वसु-द्रव्य संजोकर लाया हूँ, चरणों में नाथ! चढ़ाने को ||
ओं ह्रीं श्रीपार्श्वनाथजिनेन्द्राय अनर्घ्यपद-प्राप्तये अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा | ९| पंचकल्याणक - अर्ध्यावली (दोहा)
वामादेवी के गर्भ में, आये दीनानाथ | चिर - अनाथ जगती हुई, सजग-समोद-सनाथ || (गीता छन्द)
अज्ञानमय इस लोक में, आलोक-सा छाने लगा | होकर मुदित सुरपति नगर में, रत्न बरसाने लगा || गर्भस्थ बालक की प्रभा, प्रतिभा प्रकट होने लगी | नभ से निशा की कालिमा, अभिनव उषा धोने लगी || ओं ह्रीं वैशाखकृष्ण-द्वितीयायां गर्भमंगल मंडिताय श्रीपार्श्वनाथजिनेन्द्राय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।१।
द्वार-द्वार पर सज उठे, तोरण वंदनवार | काशी नगरी में हुआ, पार्श्व-प्रभु अवतार || प्राची दिशा के अंग में, नूतन - दिवाकर आ गया | भविजन जलज विकसित हुए, जग में उजाला छा गया || भगवान् के अभिषेक को, जल क्षीरसागर ने दिया | इन्द्रादि ने है मेरु पर, अभिषेक जिनवर का किया || ओं ह्रीं पौष कृष्णएकादश्यां जन्ममंगल-मंडिताय श्रीपार्श्वनाथजिनेन्द्राय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।२।
निरख अथिर संसार को, गृह-कुटुम्ब सब त्याग | वन में जा दीक्षा धरी, धारण किया विराग || निज-आत्मसुख के स्रोत में, तन्मय प्रभु रहने लगे | उपसर्ग और परीषहों को, शांति से सहने लगे || प्रभु की विहार वनस्थली, तप से पुनीता हो गई | कपटी कमठ- शठ की कुटिलता, भी विनीता हो गई || ओं ह्रीं पौषकृष्णैकादश्यां तपोमंगल-मंडिताय श्रीपार्श्वनाथजिनेन्द्राय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा। ३।
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