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शठ कमठ बैर के वशीभूत, भौतिक बल पर बौराया था | अध्यात्म-आत्मबल का गौरव, वह मूर्ख समझ न पाया था ||१२||
दश भव तक जिसने बैर किया, पीड़ायें देकर मनमानी | फिर हार मानकर चरणों में, झुक गया स्वयं वह अभिमानी ||१३||
यह बैर महा दुःखदायी है, यह बैर न बैर मिटाता है | यह बैर निरंतर प्राणी को, भवसागर में भटकाता है ||१४|| जिनको भव-सुख की चाह नहीं, दुःख से न जरा भय खाते हैं | वे सर्व-सिद्धियों को पाकर, भवसागर से तिर जाते हैं ||१५||
जिसने भी शुद्ध मनोबल से, ये कठिन परीषह झेली हैं | सब ऋद्धि-सिद्धियाँ नत होकर, उनके चरणों पर खेली हैं ||१६||
जो निर्विकल्प चैतन्यरूप, शिव का स्वरूप तुमने पाया | ऐसा पवित्र पद पाने को, मेरा अंतर मन ललचाया ||१७|| कार्माण-वर्गणायें मिलकर, भव वन में भ्रमण कराती हैं | जो शरण तुम्हारी आते हैं, ये उनके पास न आती हैं ||१८||
तुमने सब बैर विरोधों पर, समदर्शी बन जय पाई है | मैं भी ऐसी समता पाऊँ,यह मेरे हृदय समाई है ||१९||
अपने समान ही तुम सबका, जीवन विशाल कर देते हो | तुम हो तिखाल वाले बाबा, जग को निहाल कर देते हो ||२०||
तुम हो त्रिकाल दर्शी तुमने, तीर्थंकर का पद पाया है | तुम हो महान् अतिशय धारी, तुम में आनंद समाया है ||२१||
चिन्मूरति आप अनंतगुणी, रागादि न तुमको छू पाये | इस पर भी हर शरणागत, मन-माने सुख साधन पाये ||२२|| ___तुम रागद्वेष से दूर-दूर, इनसे न तुम्हारा नाता है | स्वयमेव वृक्ष के नीचे जग, शीतल छाया पा जाता है ||२३||
अपनी सुगन्ध क्या फूल कहीं, घर-घर आकर बिखराते हैं! सूरज की किरणों को छूकर, सुमन स्वयं खिल जाते हैं ||२४||
भौतिक पारस मणि तो केवल, लोहे को स्वर्ण बनाती है | हे पार्श्व प्रभो! तुमको छूकर, आत्मा कुंदन बन जाती है ||२५||
तुम सर्वशक्तिधारी हो प्रभु, ऐसा बल मैं भी पाऊँगा |
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