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यह पुष्प सुकोमल कितना है! तन में माया कुछ शेष नहीं | निज-अंतर का प्रभु भेद कहूँ, उसमें ऋजुता का लेश नहीं || चिंतन कुछ फिर सम्भाषण कुछ, क्रिया कुछ की कुछ होती है |
स्थिरता निज में प्रभु पाऊँ, जो अंतर-कालुष धोती है || ओं ह्रीं श्री देवशास्त्रगुरुभ्यः कामबाणविध्वंसनाय पुष्पं निर्वपामीति स्वाहा।
अब तक अगणित जड़-द्रव्यों से, प्रभु! भूख न मेरी शांत हुई |
तृष्णा की खाई खूब भरी, पर रिक्त रही वह रिक्त रही || युग-युग से इच्छा-सागर में, प्रभु! गोते खाता आया हूँ |
पंचेन्द्रिय-मन के षट्-रस तज, अनुपम-रस पीने आया हूँ || ओं ह्रीं श्री देवशास्त्रगुरुभ्यः क्षुधारोगविनाशनाय नैवेद्यं निर्वपामीति स्वाहा।
जग के जड़ दीपक को अब तक, समझा था मैंने उजियारा |
झंझा के एक झकोरे में, जो बनता घोर तिमिर कारा || अतएव प्रभो! यह नश्वर-दीप, समर्पण करने आया हूँ |
तेरी अंतर लौ से निज, अंतर-दीप जलाने आया हूँ || ओं ह्रीं श्री देवशास्त्रगुरुभ्यः मोहांधकारविनाशनाय दीपं निर्वपामीति स्वाहा।
जड़-कर्म घुमाता है मुझको, यह मिथ्या-भ्रांति रही मेरी | मैं राग-द्वेष किया करता, जब परिणति होती जड़ केरी || यों भाव-करम या भाव-मरण, सदियों से करता आया हूँ | निज-अनुपम गंध-अनल से प्रभु, पर-गंध जलाने आया हूँ || ओं ह्रीं श्री देवशास्त्रगुरुभ्यः अष्टकर्मदहनाय धूपं निर्वपामीति स्वाहा।
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