Book Title: Nischay Vyavahar
Author(s): Bharat Pavaiya
Publisher: Bharat Pavaiya

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Page 8
________________ DAR व्यवहार १६. किंतु जहां ध्यान स्वरूप - निश्चय नय का अवलम्बन छूटा कि साधक को कर्तव्यशीलता पर आकर मैं कौन हूं और मुझे क्या करना चाहिये ? मैं मुनि हूँ और छट्टे गुणस्थान की अवस्था में हूँ, अतः मुझे स्तवन आदि षट आवश्यक करना चाहिये इत्यादि विकल्पों को अपनाता है । व्यवहार नय से संसारी जीव के साथ वर्णादिक के साथ एक मेकता है। १७. पर्याप्त, अपर्याप्ति एवं सूक्ष्म और बादर ये सब देह की संज्ञायें हैं। उन्हीं को व्यवहार नय से परमागम में अभेद अपेक्षा से जीव की बताई है। इसमें को दोष नहीं है, इस प्रकार जीवस्थान और उसके आश्रित वर्णादिक ये सभी व्यवहार से जीव के स्वरूप हैं। १८. यद्यपि अशुद्धं निश्चय नय से गुण स्थान चेतन है (क्योंकि चेतना के विकार है) १९. जीव और अजीव जीवाजीवाधिकार रूप रंगभूमि में श्रंगार सहित पात्र के समान व्यवहार नय से एकरूपता को प्राप्त हुए, प्रविष्ट हुए । २०. संसार में कर्म बलवान है । २१. किंतु व्यवहार नय की अपेक्षा से वही जीव और अजीव कर्ता कर्म के भेष में श्रंगार सहित पात्र के समान प्रवेश करते हैं । २२. क्रोधादिक भाव आत्मा के कर्म जन्य विकारी भाव है जो कि अनादि से आत्मा में होते आ रहे हैं । 8

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