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निश्चय
और न छोड़ता ही है, वह निश्चय से मोक्ष मार्ग है ।
४९. निश्चय नय से तो उसकेन ज्ञान है, न दर्शन है और न चारित्र है वह तो ज्ञायक शुद्ध ही है सिर्फ ।
५०. निश्चय नय से तत्त्व को समझा जाता है ।
५१. किंतु निश्चय नय कहता है कि ये जीव और शरीर किसी काल में भी एक नहीं हो सकते हैं। निश्चय नय से तो आत्मा स्वयं सिद्ध है, शुद्धं है अतः स्तुति आदि की आवश्यकता ही नहीं है ।
५२. जीव में कर्म न बंधे है और न स्पर्शित है ऐसा शुद्ध नय का वचन है।
५३. निश्चय नय से पुद्गल कर्म एक रूप है अर्थात इनमें भेद नहीं है।
५४. आध्यात्म भाषा में निश्चय को शुद्धात्म भावना कहते हैं । ५५. निश्चय से आत्मा अपने आपको देखता है, जानता है । ५६.. जो कि निश्चय रूप दूसरे पक्ष द्वारा निषेध किया जाता है । निश्चयवादी बोलता है कि जो जीव को संसार में ही बनाये रखता है वह पुण्य कर्म सुहावना है इसलिए ये सुख देनेवाला कैसे हो सकता है ?
५७. जीवादि नव पदार्थों को भूतार्थ नय के द्वारा जानकर अपनी शुद्धात्मा से पृथक रूप से ठीक ठीक अवलोकन करना, निश्चय सम्यग्दर्शन कहलाता है और उन्हीं जीवादि पदार्थों को अपनी शुद्धात्मा से पृथक रूप में जानना सो निश्चय समयग्ज्ञान है और उनको शुद्धात्मा से भिन्न जानकर रागादिरूप विकल्प से रहित होते हुए अपनी शुद्धता मे अवस्थित होकर रहना निश्चय सम्यक चारित्र है । इस प्रकार यह
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