Book Title: Nemidutam
Author(s): Vikram Kavi
Publisher: Parshwanath Shodhpith Varanasi

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Page 12
________________ भूमिका ii एक स्वतन्त्र दूतकाव्य की रचना की । मेघदूत के समान यह भी मन्दाक्रान्ता छन्द में लिखा गया है। इसकी कथावस्तु उज्जयिनी के राजा विजय तथा उनकी रानी तारा से सम्बन्ध रखती है । अशनिवेग नामक एक विद्याधर रानी तारामती का अपहरण कर लेता है । राजा पवन के द्वारा रानी को अपना सन्देश भेजता है और मार्ग में पड़ने वाले नदी, पर्वत तथा नगरों में निवास करने वाली स्त्रियों तथा उनकी विलासवती चेष्टाओं का सजीव वर्णन करता है । इस काव्य के अध्ययन से कवि की बहुमुखी प्रतिभा स्पष्ट दिखाई पड़ती है । जहाँ तक संदेश काव्यों की प्रोढ़ परम्परा का प्रश्न है, तो वह १३ वीं शताब्दी से हुआ । बंगाल के राजा लक्ष्मणसेन ( १२ वीं शताब्दी) के सभापण्डित एवं सुप्रसिद्ध कवि जयदेव के सहकारी विद्वान् धोयी का 'पवनदूत' तथा इसी शताब्दी में ही अवधूतराम योगी ने 'सिद्धदूत' की रचना की । अब्दुल रहमान नामक एक मुसलमान कवि की अपभ्रंश भाषा में रचना 'सन्देश रासक' नामक सुन्दर दूतकाव्य भी इसी शताब्दी का है । १६वीं शताब्दी में माधवकवीन्द्र भट्टाचार्य रचित 'उद्धवदूत' तथा गौडीय सम्प्रदाय के विद्वान् रूपगोस्वामी ( १७वीं शताब्दी ) रचित 'उद्धवसन्देश' काव्य स्मरणीय है । इसी शताब्दी में श्रीरुद्रन्याय वाचस्पति ने 'पिकदूत' तथा वंगदेशीय राजा रघुनाथ राय ( १६३७ - १६५० शक ) की आज्ञा से श्रीकृष्ण सार्वभौम ने 'पादाङ्कदूत' की रचना की । इसी परम्परा का व्यापक विस्तार आगे लम्बोदर वैद्य ने 'गोपीदूत', त्रिलोचन ने 'तुलसीदूत' ( १७३० ई० ), वैद्यनाथ द्विज ने एक दूसरा 'तुलसीदूत', हरिदास ने 'कोकिलदूत' (१७१७ शक ), सिद्धनाथ विद्यावागीश ने १७वीं शताब्दी के लगभग 'पवनदूत', कृष्णनाथ न्यायपंचानन ने 'वातदूत' ( १७वीं शताब्दी), एक आधुनिक कवि भोलानाथ ने 'पांथदूत', रामदयालतर्करत्न ने 'अनिलदूत' अम्बिकाचरण देवशर्मा ने 'पिकदूत', गोपालशिरोमणि ने एक प्रहसन - रचना 'काकदूत' (१८११ शक ), गोपेन्द्रनाथ स्वामी ने १७वीं शताब्दी के लगभग 'पादपदूत', १९वीं शताब्दी के अन्त में त्रैलोक्यमोहन ने 'मेघदूत', कालीप्रसाद ने 'भक्तिदूत', रामगोपाल ने 'काकदूत' ( १७१८ शक में रचित ), महामहोपाध्याय अजितनाथ न्यायरत्न ने बंग संवत् १३२६ में 'बकदूत' और रघुनाथदास ने १७वीं शताब्दी के आसपास , Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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