Book Title: Naye Mandir Naye Pujari
Author(s): Sukhlalmuni
Publisher: Akhil Bharatiya Terapanth Yuvak Parishad

View full book text
Previous | Next

Page 56
________________ वन्धन और मुक्ति / ५५ रख पाना बड़ा कठिन होता है । जब मनुष्य भी भोजन के सामने अपने आदर्श को भूल जाता है, तो पक्षी को दोष देना शायद उपयुक्त नहीं होगा । इसलिए एक अवश आकर्षण से ग्रस्त होकर दोनों बच्चे जाल की ओर बढ़ने लगे और उससे पहले कि मां-बाप का ध्यान उधर जाता, वे दाल में कूदे । तत्क्षण बटमार ने जाल की डोरी खींच ली । दोनों बच्चे जाल में बंध कर करुण क्रन्दन करने लगे । इस स्थान पर यदि कोई आदमी होता तो वह सोचता कि क्यों मुझे यों बेकसूर पकड़ लिया गया ? क्या भोजन की खोज करना भी कोई अपराध हो सकता हैं ? स्वयं बटमार ने जो दाने बिखेर रखे थे क्या वे किसी के लिए एक मूक आमंत्रण नहीं था ? पर मनुष्य स्वयं भी अक्सर ऐसे चक्कर में फंसता है । यह दूसरी बात है कि अपने स्थान पर वह सब तर्कों को भूल जाता है। उन अनजान पक्षियों के लिए तो यह सोचना भी अकल्पनीय था । फिर भी बंधन उनको भी प्रिय था । इसलिए वे छूटने के लिए तीव्र संघर्ष करने लगे । उनकी करुण पुकार ने मां बाप का ध्यान भी खींचा। संतान के लिए स्नेह के वश में होकर एक बार उनके मन में उन्हें छुड़ाने का भी विचार आया, पर वे तो बिचारे स्वयं भी असहाय थे । अतः विवश होकर उनकी ओर एकटक देखने लगे। पर ज्यों ही बटमार अपने स्थान से उठा उन्हें भी अपने प्राणों में संशय होने लगा । अतः वे फुर्र से उड़ गए। पर मैं देख रहा था कि उड़ते हुए भी उनकी नजर अपने बच्चों पर टिकी हुई थी। एक क्षण केखिए मैंने सोचा -- क्या बड़े होकर ये बच्चे इनका भरण-पोषण करेंगे ? निश्चय ही बड़े होकर ये अपने मां-बाप को छोड़कर अपनी गृहस्थी बसाने के लिए अन्यत्र चले जायेंगे या फिर अपने मां बाप के नीड़ पर ही अपना कब्जा कर लेंगे, पर कबूतर - दम्पत्ति के सामने ये विचार नये नहीं थे । सचमुच मां-बाप का प्रेम सौदेबाजी की भाषा नहीं जानता। उनके लिए संतान का सुख ही अपना सुख होता है। इसलिए वे पास के एक वृक्ष की डाली पर बैठकर गुटगू - गुटगू करने लगे । यद्यपि मैं उनकी भाषा नहीं समझता था, फिर भी मेरा निश्चित अनुमान है कि वह करुण विलाप ही था । दोनों बच्चों का रेडियो भी उसी स्टेशन से बोल रहा था । धीरे Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

Loading...

Page Navigation
1 ... 54 55 56 57 58 59 60 61 62 63 64 65 66 67 68 69 70 71 72 73 74 75 76 77 78 79 80 81 82 83 84 85 86 87 88 89 90 91 92 93 94 95 96 97 98 99 100 101 102 103 104 105 106 107 108 109 110 111 112 113 114 115 116 117 118 119 120 121 122 123 124 125 126 127 128 129 130 131 132 133 134 135 136 137 138