Book Title: Naye Mandir Naye Pujari
Author(s): Sukhlalmuni
Publisher: Akhil Bharatiya Terapanth Yuvak Parishad

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Page 116
________________ मा फलेषु कदाचन मैं लंदे समय से संतोष को यह समझाने का असफल प्रयास कर रहा था कि कर्म को अच्छे और बुरे में मत बाँटो। अस्तित्व की ब्याख्या केवल इतनी ही हो सकती है कि वह है । इसके अतिरिक्त उसकी खूटी पर भले और बुरे के वस्त्र टाँकना केवल हमारी आरोपित मान्यताएं हैं। पर संतोष को मेरी बात पर विश्वास नहीं हो रहा था। वह अक्सर मुझे तर्क दिया करता था कि अच्छे बीज का फल अच्छा ही होगा इसमें क्या संदेह है ? मैं उसे कहता-उदाहरणों में सत्य का प्रतिबिम्ब मत देखो। वह कभी सही भी निकल सकता है और कभी गलत भी। पर सच बात यह थी कि मैं स्वयं भी अपने तर्क के बल पर अपने को उस पर लादने की कोशिश कर रहा था। जिस तर्क से मैं उसको काट रहा हूँ उसी तर्क से क्या मैं अपने आपको नहीं काट रहा हूँ यह आभास मुझे हुआ करता था। इसीलिए कुछ दिनों से मैंने उसे कुछ भी समझाना छोड़ दिया था। मैं सोचने लगा था कि सत्य की व्याख्या करने की आवश्यकता नहीं है । कभी वह अपने आप प्रकाशित हो जाता है । और सच तो यह है कि सत्य के बारे में निश्चित धारणा बना लेना ही संभव नहीं है। __लम्बे समय के बाद कल संतोष मेरे पास आया और बोला - तुम जो कहते थे,बह सच निकला । कार्यको किसी निश्चित परिणाम में देखना मेरी भूल थी। क्रिया की परिणति प्रतिक्रिया में तो होती है पर यह नहीं कहा जा सकता कि वह परिणति भली ही होगी या बुरी ही । हम जिस अच्छे परिणाम की आशा से कोई काम करते हैं, वह बहुत बार बुरे परिणाम में बदल सकता है। इसी प्रकार कभी-कभी बुरे परिणाम में से भी भलाई में निकल सकती Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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