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न्दिसूत्रम्।
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|| प्रस्तावना
जो ए भेद दर्शाव्यो नथी तो समन्वय थयो केवी रीते ? पण अहीं धृष्ट हृदयवाळा एम कहेवानी पण हिंमत करे तेवा छे के ते समन्वय करवामां नंदीसूत्रकारनी खामी रहेली छे. तेवा अहंमानी 'धूर्त' पंडितोने जवाब अने युक्ति आपवानो कशोज हेतु नथी. छतां पण बुद्धिने ठेकाणे राखीने जोवु होय तो विचारे के ज्यां आ ज्ञानने प्रत्यक्ष कहथुछ त्यां कयी इन्द्रियनो संग्रह शरू थइ शके ? द्रव्येन्द्रियनो के भावेन्द्रियनो ? जो द्रव्येन्द्रियने प्रमाण मानवामां आवे छे तो तमे कया प्रमाणथी जाण्यु ? मूळकारनो तेवो अभिप्राय छे, ए जाणवा माटे कोई प्रामाणिक साधन तमारी पासे छे ज नहीं. एटलुज नहीं पण जैनशासननो कोइ पण न्यायग्रन्थ तमारी वातनुं समर्थन करतो नथी. अने जे प्रमाणथी (टीका चूर्णि तेमज परंपराद्वारा) मूळकारनो अभिप्राय प्राप्त छे. तेनाथी तो स्पष्ट ज छे के " सावरणाखओवसमातो लद्धी तं भावि दियं तस्स पच्चक्खं ति इंदियपच्चक्वं तं पंचविहं......" नंदीचूर्णिकार पोताना आवरणना क्षयोपशमथी जे लब्धि छे ते भावेन्द्रिय, तेनुं प्रत्यक्ष ते इन्द्रियप्रत्यक्ष, ते पांच प्रकारे छे" वळी आगळ जइने जणावे छ के भाविदियोवचारपच्चक्खओ अतं पच्चक्खं, परमत्थओ पुण चिंतमाणं एतं परोवखं" भावेन्द्रिय-उपचार-प्रत्यक्षत्वथी आ प्रत्यक्ष छे. परमार्थथी तो परोक्ष छे" वळी तत्त्वार्थमां सिद्धसेनगणि पण जणावे छ के (पृ. १६८) 'तस्माल्लब्ध्यादयः चत्वारः समुदिताः शब्दादिविषयपरिच्छेदमापादयन्त इन्द्रियताव्यपदेशम् अश्नुवते'
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