Book Title: Nabhak Raj Charitram Prat
Author(s): Merutungasuri
Publisher: Shravak Hiralal Hansraj
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________________ का - 8. अर्थ-त्यार बाद ओगणत्रीसमा दिवसे नमस्कारर्नु स्मरण करता करतांज थोडी निद्रा लीधी. निद्रामां एबुं स्वप्न जोयु के-॥२२९॥ क्विाऽपि स्फटिकशैलेऽहं, सोपाने प्रथमे स्थितः केनाप्यतीववृहेन, कृशेन लोठितः परम् // 230 // चरित्र प्राप्तो द्वितीयसोपान, तृतीयं च गतस्ततः। शैलशृङ्गमथारुह्य, मुक्तराशौ निविष्टवान् // 231 // युग्मम् / // 55 // अर्थ-"हुँ कोइ स्फटिक पर्वत उपर पहेले पगथीये चड्योहतो, तेवामां कोइ एक कृश अने अत्यंत वृद्ध पुरुषे धक्को मारी गबडाव्यो,परंतु नीचे जवाने बदले उलटो बीजेपगथीये प्राप्त ययो, त्यारपछीत्रीजे पगथीये चड्यो, क्रमसर पर्वतना शिखर उपर चडी छेवटे मुक्तिमांजइ बेठो" प्रभो! फलं किमस्येति, पृष्टः श्रीगुरवो जगुः। स्फटिकादिर्जनधर्मः, सोपानं मानुषो भवः // 232 // अर्थ-आ प्रमाणे आश्चर्यकारी स्वप्न जोइ जागृत थयेला नाभाक राजाए मातःकाले मुनिराजने पूछयु के-'प्रभो! आ स्वमनुं फळ शृं?'त्यारे || गुरुमहाराजे कत्यु के-"जे तुं स्फटिक पर्वत उपर चड्यो ते जिनधर्म जाणवो, ते पर्वतना पहेला पगथीया रूप मनुष्य जन्म समजवो।२३२। IPL अतो धर्माच्च यत्नेना-ऽन्तरायस्वल्पकर्मणा / पात्यमानोऽपि सत्त्वेना-ऽच्युतस्त्वं स्वर्गमिष्यसि // 233 : अर्थ-आ जिनधर्म रूपी स्फटिक पर्वतना पहेला पगथीयाथी अंतराय रूपी स्वल्प कर्म वडे गवडावातो छतां सत्त्व वडे रह रहेलो तुं पतित नहीं थयो छतो देवलोक रूपी बीजे पगथीये जइश // 233 // . ज्ञानं तृतीयसोपानं, नृभवेऽवाप्य केवलम् / सर्वकर्मविनिर्मुक्तो, मुक्तराशी निवेक्ष्यसि // 234 // DeGunrainastel M.S. - Jun Guf Aaradhiakant

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