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( ३१ )
तेरी सीधी तो होती कमरही नहीं ॥ कफनको लिये सरपे मौत खड़ी
देख क्या तुझको आती नजरही नहीं ॥ २ ॥
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मत भोग विलासकी आस करेमत भारतका पापी तू नाश करे || तूतो मरकर के दुरगतमें बास करेऐसी शादीका अच्छा समरही नहीं ॥ ३ ॥
भोग करते गए साठ साल तुझेहाए अब भी तो आता सबर ही नहीं || तेरा थर थर तो कांपे है सारा बदनदांत कोई भी आता नज़र ही नहीं ॥ ४ ॥ मत बूढ़ों की बच्चों की शादी करो - मत हिन्द की तुम बरबादी करो || कहे न्यामत बुढ़ापे में बचपन में तोभूलशादी का करना ज़िकर ही नहीं ॥ ५ ॥
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नोट- श्री प्रकलक जी और उनके छोटे भाई दुकलंक जी दोनों विद्या पढने के लिए चीन देश में गए थे- कुछ दिनों के बाद उन दोनों को जैनी मालूम करके राजा ने उनको करल करने का हुक्म देदिया—यह दोनों वहां से जान बचाकर भागे मगर पीछे से फौजने उनपर हमला किया-मव इस मुसीबत के समय में एक ऐसा अवसर भागया कि इन दोनों में से एक बच सकता था कि छोटे भाई की निसबत बडे भाई अकलक जी स्यादवाद रूप न्यायशास्त्र के विद्वान थे भौर